Tonk / सुरेश बुन्देल । टोंक शहर अदब और अदीब के एतेबार से सरसब्ज़ रहा है। आज भी यहां देश- विदेश के लोग बड़े शौक से टोंक की शनासाई को परखने आते हैं। रियासत काल में आलिम और फाजिल शख्सियतों की तादाद इतनी ज्यादा हुआ करती थी कि हिंदुस्तान में टोंक के नाम का जिक्र सफे- अव्वल में आया करता था। यहां के कई मदरसों में तो विलायत तक से तालिबे- इल्म दीनी तालीम के लिए शिरकत फ़रमाया करते थे।
यहां तक कि बरतानिया हुकूमत के गोरे भी टोंक के अदबी माहौल से मुत्तासिर रहे। टोंक रियासत उर्दू, फारसी और अरबी जुबान के अर्जमन्द अदीबों से लबरेज रही। इसी दौर में एक बेहद पढ़ा- लिखा शख्स भी हुआ, जिसके अंग्रेजी ज्ञान का लोहा अंग्रेज भी माना करते थे। 1904 में गुलबाज खां के घर पैदा हुए मास्टर एजाज अहमद खां ने बतौर अंग्रेजी भाषा के शिक्षक के रूप में देहरादून के हाई स्कूल, जयपुर स्थित सेन्ट जेवियर कॉलेज और अजमेर के प्रतिष्ठित मेयो कॉलेज तक में अपनी सेवाएं दीं और अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया।
धाराप्रवाह उच्चारण से मिली ख्याति
एजाज साहब की तालीम अदबी और धार्मिक माहौल में हुई। उनके सुपुत्र मेहताब अली खां बताते हैं कि उनसे दो बड़े भाई मौलवी थे, लिहाजा दीनी तालीम उन्हें विरासत में मिली। एजाज साहब ने 1922 में अजमेर के सरकारी कॉलेज से भूगोल में स्नातक तथा 1923 में बी. टी. (अब बी. एड.) तक की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की।
छात्र जीवन से ही धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने के कारण एजाज अहमद देश के मशहूर मेयो कॉलेज में ट्यूटोरियल गार्जियन हो गए, जो उनकी काबिलियत का बेहतरीन नमूना था। 1931 में वे देहरादून के हाई स्कूल में बतौर हेडमास्टर मुकर्रर किए गए। वहां की बर्फानी आबो- हवा से तालमेल नहीं बैठा पाने की वजह से वे 1935 में ही टोंक लौट आए और दरबार हाई स्कूल के अंग्रेज हेडमास्टर मिस्टर फिलिप ने उन्हें स्कूल का असिस्टेंट हेडमास्टर नियुक्त करा दिया।
गौरतलब है कि आज का दरबार स्कूल उस वक्त कलेक्ट्रेट बिल्डिंग में चला करता था। उसके बाद उन्हें तबादलों की काफी मार झेलनी पड़ी, वे निम्बाहेड़ा, सिरोंज, सलूम्बर, सोजत सिटी, परवतसर, निवाई और उनियारा के स्कूलों में संस्था प्रधान के रूप में सेवाएं देते हुए 1964 में सांगोद (कोटा) से रिटायर हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे जयपुर के मुस्लिम हाई स्कूल में चार साल सेवाएं देने के बाद 1966 से 1988 तक का वक़्त सेन्ट जेवियर कॉलेज में गुजरा, जहां फादर परेरा के कहने से अंग्रेजी पढ़ाते रहे।
स्वास्थ्य कमजोर होने की वजह से वे टोंक लौट आए तथा 1994 में उनका देहान्त हो गया। अंग्रेज उन्हें इंग्लिश ग्रामर का उस्ताद माना करते थे, उनका अंग्रेजी उच्चारण बहुत ही आला दर्जे का था।
उसूलपसन्द शिक्षक और अदीब
टोंक के कई जानकार आज भी उन्हें उसूलपसन्द, कायदों के पाबन्द और खेल प्रेमी के तौर पर जानते हैं। नवाब सआदत अली खां के दौर में वे बड़ी अच्छी क्रिकेट और फुटबॉल खेला करते थे। जीवन भर शिक्षण कार्य में व्यस्त रहने के बावजूद उन्होंने अमीरनामा की तर्ज पर उर्दू जुबान में ‘तारीख- ए- टोंक’ के नाम से किताब भी लिखी और नवाब इस्माईल अली खां को भेंट की।
बाद में उनकी किताब का प्रकाशन ए. पी. आर. आई. के संस्थापक निदेशक साहबजादा शौकत अली खां के निर्देशन में भी हुआ। ऐसी शख्सियत हमेशा काबिले- कद्र और काबिले- जिक्र बनी रहेगी।