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मनुष्य की तृष्णा, इच्छा व वासना का कोई अंत नहीं है - संत सुधा सागर - Dainik Reporters

मनुष्य की तृष्णा, इच्छा व वासना का कोई अंत नहीं है – संत सुधा सागर

liyaquat Ali
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ईच्छा तो रावण की भी पूरी नहीं हुई तो आप किस मिट्टी के बने हो : मुनि श्री 108 महासागर जी

 

 

 

देवली/दूनी (हरि शंकर माली) । देवली उपखण्ड के श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी महाराज, मुनि श्री 108 महासागर जी, मुनि श्री 108 निष्कम्प सागर, क्षुल्लक श्री 105 गंभीर सागर, क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज ससंग मे मुनि श्री महासागर जी ने अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की रावण जो की दसो विध्याओ से नीपूर्ण था देवताओ पर असका आधिपत्य था सोने की लंका थी फिर भी उसकी मन की ईच्छा पूर्ण नहीं हुई ।

वो चाहता था की वो स्वर्ग तक सिडिया लगाएगा , वो चाहता था की अग्नि मे से धुवा न निकले, वो चाहता था की समुद्र का पानी मीठा हो , राम के हाथो उसका पतन हो गया परंतु उसके मन की ईच्छा कभी पूर्ण नहीं हुई । जब रावण की ईच्छा पूर्ण नहीं हुई तो आप किस मिट्टी के बने हुवे हो । तृष्णा नागिन का जहर भव-भव में भी नहीं उतरता। जैसे इमली का पेड़ भले ही बूढ़ा हो जाये पर उसकी खटाई कम नहीं होती, ऐसे ही तृष्णा भी कम नहीं होती। तत्व ज्ञान के माध्यम से ही तृष्णा को शांत किया जा सकता है। तृष्णा रूपी अग्नि को बुझाना चाहते हो तो धनादि की इच्छा छोड़ दो और जो रखा है, उसे भी त्याग दो।

तृष्णा रूपी ज्वालायें इस जीव को जला रही है

संत श्री सुधा सागर जी ने धर्मसभा मे चल रहे मंगल प्रवचनों मे कहा की तृष्णा रूपी ज्वालायें इस जीव को जला रही है। यह जीव इन्द्रियो के इष्ट विषय एकत्रित कर उनके इन तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है, पर उनसे इसकी शांति नहीं होती है, प्रत्युत् वृद्धि ही होती है।

जिस प्रकार घी की आहुति से अग्नि की ज्वाला शांत होने की अपेक्षा अत्यधिक प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार विषय सामग्री से तृष्णा रूपी ज्वाला अत्यधिक प्रज्वलित होती है अतः उत्तम शौच धर्म का पालन कर तृष्णा का अभाव करना चाहिए।उन्होंने कहा कि मनुष्य की तृष्णा, इच्छा व वासना का कोई अंत नहीं है।

प्राणी बूढ़ा हो जाता है, अंग शिथिल पड़ जाते हैं, इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं लेकिन उसकी काम भोगों के प्रति लालसा कम नहीं होती। संसार का आकर्षण बढ़ता ही जाता है जबकि वृद्धावस्था आने पर मनुष्य का विवेक प्रबुद्ध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि सांसारिक विषय भोगों के प्रति मन में उदासीनता व वैराग्य का भाव आना चाहिए।

मन भक्ति में नहीं लगता क्योंकि संसार के पदार्था की कामना से मन मुक्त नहीं हो पाता। यदि निर्वेद भाव को जीवात्मा उपलब्ध हो जाए तो उसके जीवन में संसार, शरीर, भोगों व लालसाओं का त्याग हो जाता है।

साधना के महामार्ग पर अनासक्त जीवात्मा ही सफलता पाएगी

मुनिश्री ने अपने प्रवचनों मे कहा कि मनुष्य की तृष्णा, इच्छा व वासना का कोई अंत नहीं है। प्राणी बूढ़ा हो जाता है, अंग शिथिल पड़ जाते हैं, इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं लेकिन उसकी काम भोगों के प्रति लालसा कम नहीं होती। संसार का आकर्षण बढ़ता ही जाता है जबकि वृद्धावस्था आने पर मनुष्य का विवेक प्रबुद्ध होना चाहिए।

उन्होंने कहा कि सांसारिक विषय भोगों के प्रति मन में उदासीनता व वैराग्य का भाव आना चाहिए। मन भक्ति में नहीं लगता क्योंकि संसार के पदार्थो की कामना से मन मुक्त नहीं हो पाता। यदि निर्वेद भाव को जीवात्मा उपलब्ध हो जाए तो उसके जीवन में संसार, शरीर, भोगों व लालसाओं का त्याग हो जाता है।

जैन मुनि ने कहा कि समस्त अभिलाषाएं, तृष्णा, कामनाएं आदि स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। साधक विषयों से विरक्त होकर संसार में रहता हुआ भरत चक्रवर्ती की भांति अनासक्त हो जाता है। देह में रहता हुआ विदेही अवस्था को उपलब्ध हो जाता है। उन्होंने कहा कि संसार से भागो मत अपितु क‌र्त्तव्य निर्वहन करते हुए कमल की भांति जीवन यापन करो।

जैन संत ने कहा कि अनासक्त प्राणी का मन भक्ति, भजन, स्वाध्याय व ध्यान में रस लेता है। उन्होंने बताया कि साधना में सबसे बड़ी बाधा तृष्णा व आसक्ति है, वह आसक्ति शरीर, इंद्रिय, भोग, परिवार व अन्य सांसारिक कामनाओं व इच्छाओं की है। उनके अनुसार अनासक्ति का आना सबसे कठिन साधना है।मानव अपनी इच्छा से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता है ठीक उसी प्रकार जैसे इच्छा का समाप्त हो जाना ही मोक्ष है. किसी भी बंधन से मुक्ति तब तक नहीं मिलती है,जब तक हम उससे अपनी इच्छाओं को मुक्त नहीं करते है|

तृष्णा है पतन का कारण

एक मनुष्य के पास उसके रहने के लिए एक कुटिया थी। एक दिन जब वह कुटिया से बाहर निकला तो उसने एक सुन्दर आलीशान प्रासाद (महल) देखा। वह प्रासाद देखते ही उसे अपनी कुटिया छोटी लगने लगी और उसके मन में आया कि मेरे पास भी एक ऐसा ही आलीशान महल हो तो ठीक रहे। यह इच्छा क्यों उत्पन्न हुई? जो आत्मा थोडी वस्तु में निर्वाह कर रही थी, अब बडप्पन से निर्वाह करने की उसमें अभिलाषा उत्पन्न हुई। यही पतन है।

संसार के पदार्थों की तीव्रतम अभिलाषा, उन्हें येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना और प्राप्त कर के उनका उपभोग करने की भावना होना; यही तृष्णा है और इसी से पतन की उत्पत्ति होती है। यह तृष्णा ही पतन का मूल है। यदि तृष्णा न हो तो गलत मार्ग पर अग्रसर होने की और पतन की संभावना ही नहीं रहती है।

‘नीति मार्ग से पतन नहीं होता, अनीति के मार्ग से पतन होता है’, यह बात मान लें, तब भी अनीति के मार्ग का उद्भव कहां से हुआ? यदि संयम रखा होता कि ‘मेरा कोई काम इसके बिना रुकता नहीं है, मैं कम साधनों में भी निर्वाह कर सकता हूं’, तो यह तृष्णा उत्पन्न होती क्या? नहीं होती।

तृष्णा आत्म-भाव को जगाने वाली है अथवा डुबाने वाली? पुद्गल की तृष्णा दोष स्वरूप होती है कि गुण स्वरूप? जो लोग पुद्गल की तृष्णा को भी लाभदायक मानते हैं, वे बहुत भारी भूल कर रहे हैं। उन्हें वस्तु-स्वरूप का ध्यान ही नहीं है। आत्मा को वे पहचानते ही नहीं हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा को उन्नति का साधन मूर्ख लोग मानते हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा धर्म-स्वरूप नहीं है।

यह आत्मा का पतन है। जितने हम तृष्णा से दूर रहें, उतना ही हमारा उदय है और वही हमारी वास्तविक प्रगति है। आँखों से उसने महल देखा, तब उसकी इच्छा हुई कि वह या वैसा मुझे भी चाहिए। परिणाम स्वरूप उसका पतन हुआ। युवावस्था में इन्द्रियां बलिष्ठ होती हैं, चक्षु आदि दौडते हैं। ज्यों-ज्यों हम नवीन वस्तु देखते हैं, त्यों-त्यों उन्हें प्राप्त करने की हमारी इच्छा बलवती होती जाती है।

अध्यक्ष नेमिचन्द जैन ओमप्रकाश जैन पवन जैन आशीष जैन श्रवण कोठारी ने बताया की रोजाना धर्मसभा मे देवली जयपुर कोटा टोंक मालपुरा अजमेर ब्यावर किशनगढ़ निवाई स्वाइमाधोपुर से सेंकड़ों जैन समाज के लोगों ने प्रवचन में भाग लेकर धार्मिक पुण्य कमा रहे है ।

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