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जैन दर्शन में है गुरूपूर्णिमा का अधिक महत्व : संत सुधा सागर - Dainik Reporters

जैन दर्शन में है गुरूपूर्णिमा का अधिक महत्व : संत सुधा सागर

liyaquat Ali
13 Min Read

 

भगवान कभी भक्त को दुखी नहीं देख सकता , उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को दुखी नहीं देख सकता 

 

गुरु पुर्णिमा पर हुआ विशेष कार्येक्रम 

 

देवली/दूनी (हरि शंकर माली) । देवली उपखण्ड के श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी महाराज ससंग ने गुरु पुर्णिमा के अवसर पर श्रद्धालुओ को गुरु महिमा के बारे मे बताया । मुनि श्री ने गुरु ओर शिष्य के जीवन पर प्रकाश डालते हुवे बताया कि जैसे भगवान अपने भक्त को दुखी नहीं देख सकता उशी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को दुखी ओर निराश नहीं देख सकता। जैन धर्म में गुरू पूर्णिमा का विशेष महत्व है, इसमें गुरुओं को उच्च स्थान दिया गया है। इसलिए गुरु और उनके ज्ञान को कभी नही भूलना चाहिए। यह बात संत श्री 108 सुधा सागर महाराज ने गुरू पूर्णिमा पर अपने शिष्य सहित मौजूद भक्तों को प्रवचन देते हुए कही।

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बगैर संस्कार शिष्य अधूरा:

संत सुधा सागर ने कहा कि गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता, जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके। गुरू यदि शिष्य को संस्कार न दे तो शिष्य कभी ऊंचाई को प्राप्त नहीं कर सकता, जीवन में गुरू का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है यदि वे मार्ग न बताये तो मोक्ष की प्राप्ती नही हो सकती है। गुरू के शिष्य को कष्ट देने के भाव नहीं होते, उनके भाव तो आपको जैन दर्शन में प्रमुख स्थान दिलाने का होता है एक सुन्दर भूति बनाने का होता है।

मुनिवर ने गुरु की महिमा बताते हुवे प्रवचन मे कहा की मनुष्य जीवन में माता पिता और गुरु का महत्व विश्व भर में सर्वोपरि माना जाता है । माता पिता का इसलिये कि वे हमें जन्म देते हैं और गुरु इसलिये कि गुरू ही वास्तव में हमे मानव, इन्सान, मनुष्य बनाते है मनुष्यता, मानवीयता या इन्सानियत के संस्कार देते हैं। इस प्रकार गुरु हमे दूसरी बार जन्म देते हैं।

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भारत धर्म तथा संस्कृति प्रधान देश है और भारत ही क्या सारे विश्व में गुरू का स्थान ईश्वर के समान और कहीं कहीं तो ईश्वर से भी प्रथम पूज्यनीय बताया गया है। हमारी संस्कृति उन्हें केवल गुरु नहीं ‘‘ गुरू देव’’ कहती है। जैन धर्म में तो ‘‘गुरू की महिमा वरनी न जाय ‘‘ गुरूनाम जपों मन वचन काय‘‘ कहकर गुरू को पंच परमेष्ठि का स्थान दिया है। देव, शास्त्र, और गुरू की त्रिवेणी में करके ही मोक्ष महल में प्रवेश की पात्रता आती है और उसके फलस्वरूप संसार के आवागमन से मुक्ति मिलती है। गुरू हमारे जीवन से अज्ञान का अन्धकार मिटाकर एक नई दृष्टि देते हैं। उन्हीं की दृष्टि —यष्टि के सहारे हम ‘‘भव—वन’’ से सुरक्षित निकल कर इहलोक और परलोक सुधारते हैं

जैनागम में गुरू शिष्य परम्परा की उस मंगलकारी घटना के कारण ही कैवल्य प्राप्ति के पश्चात तीर्थंकर भगवान महावीर की वाणी उनके महान शिष्य गौतम गणधर के माध्यम से जन सामान्य को उपलब्ध हुई।

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जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है वह कर्म है

संत श्री सुधा सागर जी ने अपने प्रवचन मे कर्म की परिभाषा बताते हुवे कहा की जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है वह कर्म है । इस कर्म के निमित्त से ही यह जीव इस संसार में अनेकों शारीरिक, मानसिक और आगंतुक दु:ख को भोग रहा है । जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है । कहा भी है — ‘‘जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है जैसे कि सुवर्णपाषाण में मल-किट्ट और कालिमा खान से ही सम्बन्धित हैं । इन जीव और कर्मों का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है ।’’ अर्थात् जीव का स्वभाव रागादिरूप परिणत होने का है और कर्म का स्वभाव रागादिरूप परिणमन कराने का है । इन दोनों का अस्तित्व भी ईश्वर आदि कर्ता के बिना ही स्वत: सिद्ध है । जिस प्रकार मदिरा का स्वभाव जीव को उन्मत्त कर देने का है और इसके पीने वाले जीव का स्वभाव उन्मत्त हो जाने का है, उसी प्रकार कर्मोदय के निमित्त से जीव का स्वभाव रागद्वेष रूप परिणमन करने का है और कर्म का स्वभाव जीव को विकारी बना देने का है ।

जीव का अस्तित्व ‘‘अहं’’-‘‘मैं’’ इस प्रतीति से जाना जाता है तथा कर्म का अस्तित्व-जगत में कोई दरिद्री है तो कोई धनवान है इत्यादि विचित्रता को प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है । इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध हैं ।

चातुर्मास के दौरान मनाएंगे ये पर्व

चातुर्मास के दौरान 27 जुलाई गुरु पूर्णिमा, 28 को वीर शासन जयंती, रक्षा बंधन, षोडशकारण व्रत, रोट तीज, चौबीसी व्रत, दशलक्षण महापर्व जिसे पर्युषण महापर्व मनाए जाएंगे। साथ ही सुगंध दशमी, अनंत चतुर्दशी, क्षमा वाणी पर्व सहित कई आयोजन भी होंगे। चातुर्मास के दौरान प्रतिदिन संतों की प्रवचन श्रृंखला भी चलेंगी।

चार महीने एक स्थान पर करें साधना

वर्षा ऋतु के चार महीने चातुर्मास पर्व मनाया जाता है। जैन धर्म में चातुर्मास का विशेष महत्व है। इस दौरान जैन धर्म के अनुयायी ज्ञान, दर्शन, चरित्र व तप की आराधना करते हैं। इस दौरान एक ही स्थान पर रहकर संत-मुनि साधना और पूजा पाठ करते हैं। जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म हैं। चूंकि बारिश के मौसम में कई प्रकार के कीड़े, सूक्ष्म जीव-जंतु, जो आंखों से दिखाई नहीं देते हैं, वे सर्वाधिक मात्रा में सक्रिय हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्य के चलने-उठने के कारण इन जीवों को नुकसान पहुंच सकता है। इस दौरान जैन साधु किसी एक स्थान पर ठहरकर तपस्या, प्रवचन करते हैं और जिनवाणी के प्रचार प्रसार को महत्व देते हैं। चातुर्मास जैन संतों के लिए शास्त्रों में नवकोटि विहार का संकेत है। भगवान महावीर ने चातुर्मास को “विहार चरिया इसिणां पसत्था’ कहकर विहार चर्या को प्रशस्त बताया है।

महावीर की वाणी के तीन आधारभूत मूल्य

महावीर की वाणी के तीन आधारभूत मूल्य- अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त हैं। ये युवाओं को आज की भागमभाग और तनाव भरी जिंदगी में सुकून की राह दिखाते हैं। महावीर की अहिंसा केवल शारीरिक या बाहरी न होकर, मानसिक और भीतर के जीवन से भी जुड़ी है। दरअसल, जहां अन्य दर्शनों की अहिंसा समाप्त होती है, वहां जैन दर्शन की अहिंसा की शुरुआत होती है। महावीर मन-वचन-कर्म, किसी भी जरिए की गई हिंसा का निषेध करते हैं। भगवान महावीर ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका- इन चार तीर्थों की स्थापना की। इसलिए वे तीर्थंकर कहलाए। यहां तीर्थ का अर्थ लौकिक तीर्थों से नहीं बल्कि अहिंसा, सत्य आदि की साधना द्वारा अपनी आत्मा को ही तीर्थ बनाने से है।

महिलाओं को तीर्थ सुरक्षा का संकल्प लेना चाहिए

आयोजित धर्मसभा में मुनि पुंगव सुधा सागर जी महाराज ने कहा कि महिलाओं को तीर्थ की सुरक्षा का संकल्प लेना चाहिए। महिलाएं तीर्थ की सुरक्षा करेंगी और कभी महिलाओं पर परेशानी आती है तो तीर्थ उनकी सुरक्षा करते हैं।

मुनिश्री ने कहा कि मुनियों की वजह से आज जैन धर्म हमें मिला है। साधु को अगर हम बाहर से देखते हैं तो वह फक्कड़ नजर आता है और जब अंदर से देखते हैं तो अपार आनंद व शक्ति से भरे नजर आते हैं। हमारे प्राचीन साधु-संतों की तपस्या इतनी प्रगाढ़ होती थी कि उनके पसीने को अगर पत्थर पर डाल दिया जाए तो वह सोने का बन जाता था। उनके पांवों की रज माथे पर लगा लेने से बीमारियों से छुटकारा मिल जाता था। मुनिश्री ने कहा कि श्रावक को धर्म के क्षेत्र में कभी गरीब नहीं होना चाहिए। जो व्यक्ति व्यसनों में अपने धन को लगाता है और धर्म के मार्ग में लगाने के लिए वह गरीब बन जाता है तो वह अगले जन्मों में दरिद्री होता है।

छात्र छात्राओ की भक्तिमय रंगारंग प्रस्तुति

श्रवण कोठारी ने बताया की श्री सुधा सागर पब्लिक स्कूल के छात्र छात्राओ ने भक्तिमय रंगारंग प्रस्तुतिया भी दी जिसमे मंगलाचरण रिया एण्ड ग्रुप , सामुहिक न्रत्य इतिशा एण्ड ग्रुप, एकांकी दक्ष साह एण्ड ग्रुप, अंग्रेजी मे उध्भोदन सुहानी चंदेल एवं गुरु भक्ति पर सामुहिक न्रत्य अवनि एण्ड ग्रुप ने अपनी प्रस्तुतिया दी | महाराज श्री ने विध्यालय के छात्र छात्राओ को निरंतर अग्रसर हो अपना ओर विध्यालय का नाम रोशन करने का आशीर्वचन दिया |

गन्धोदक व इसका महत्व

संत श्री सुधा सागर महाराज ने गन्धोदक का महत्व बताते हुवे कहा की जैन धर्म में भगवान वो महापुरुष है जिन्होंने जीवन की सच्चाई को जानकर सांसारिक आडम्बरों से दूर रहकर जैनेश्वरी दिगम्बर मुद्रा धारकर स्वयं आत्मा में लीन होकर मोक्ष की प्राप्ति कर जन्म मरण के फेरों से मुक्ति पाई। प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर महावीर तक सभी तीर्थंकरों एवं अन्य जिनेन्द्र देव की मन्दिरों में विराजमान प्रतिष्ठित प्रतिमाओं का प्रतिदिन अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के बाद के जल को गंधोदक कहते है। ‘जिनसंस्पर्शित नीर यह गंधोदक गुणखान’ अर्थात जिन प्रतिमाओं का स्पर्श किया हुआ जल गुणों की खान होता है। इसी गंधोदक की एक दो बूंद को बहुत आदर व श्रद्घा के साथ मस्तक पर लगाते है इस प्रक्रिया के दौरान निम्न श्लोक का उच्चारण करते है:

निर्मलं निरमलीकरणं पावनम् पापनाशकम्
जिन चरणोदकं वंदे अष्टकर्म विनाशनम्।

अर्थात् यह गंधोदक निर्मल है, निर्मल कराने वाला है, पवित्र है, पाप नाश कराने वाला है। ऐसे गंधोदक को व जिनेन्द्र देव को वन्दन करके आठ कर्मो का नाश करने के लिये मस्तक पर धारण करता हूं।

गंधोदक की मर्यादा 24 घन्टे की बताई गई व इसके बाद 2 -3 लोंग डाल देने से इसकी मर्यादा 48 घंटों की हो जाती है इससे भी अधिक समय पश्चात गंधोदक काम मे लेने के लिये मुनि श्री सुधासागर जी ने बताया कि शुद्घ खादी का या स्वदेशी सूती कपडा गंधोदक में भिगोकर सुखा ले, सूखने के बाद किसी स्वच्छ डब्बे में रख ले। जब भी गंधोदक की आवश्यकता महसूस करे तब इस कपड़े पर शुद्घ जल डालकर कपड़े को निचोड के गंधोदक की प्राप्ति होगी। उन्होंने यह भी कहा था कि कदाचित गंधोदक से रोग ठीक न हो , शांति ना मिले, व्यापार व शिक्षा में उन्नति न हो तो गंधोदक पर से विश्वास मत हटाना सोचना मेरे अन्तराय कर्मो का भारी दय। इसी कारण से मेरे ऊपर गंधोदक का प्रभाव नहीं पड़ रहा है।

देश के कोने कोने से आरहे है श्रद्धालु

अदयक्ष नेमिचन्द जैन , समिति के ओम प्रकाश जैन , पवन जैन , आशीष जैन ने बताया की मुनि श्री के दर्शनार्थ श्रद्धालु राजस्थान के भीलवाडा ,अजमेर, किशनगढ़ , ब्यावर , बांसवाड़ा , कोटा , बूंदी , टोंक , स्वाइमाधोपुर , जयपुर के साथ साथ मद्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश , महारास्ट्र , नोएडा , से भी श्रद्धालु संत श्री का आशीर्वाद लेने पहुंच रहे है

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