सीएए धर्मनिरपेक्ष नहीं, मुस्लिम को नागरिकता के लिए ट्रिब्यूनल्स का सहारा

liyaquat Ali
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Bhilwara / Jahazpur( आजाद नेब ) – धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का अभिन्न और अटूट हिस्सा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या संविधान में ऐसा परिवर्तन इस तरीके से करना देश की जनता को स्वीकार नहीं होने की वजह से देश मे आऐ दिन कानून की मुखालफत करते हुए लोग दिखाई देते नजर आ रहे है। पूरे देश में आमजन असमंजस की स्थिति में जी रहे हैं।

क्योंकि देश के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री एनआरसी को लेकर अलग-अलग बयान दिए हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा कि एनआरसी आएगी वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में सभा को संबोधित करते हुए कहा कि एनआरसी के बारे में तो अभी कोई बात तक नहीं हुई।

मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवी एवं वकील फारूक अली, अखलाक पठान, जाकिर हुसैन, सलीम चीता इस कानून के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि असम राज्य में एनआरसी हुआ और लगभग 3.3 करोड़ लोगों के नाम उसमें आए और लगभग 19 लाख के नहीं आए।

जिन 19 लाख के नाम नहीं आए उनमें से लगभग 13 लाख हिंदू, सिख, बौद्ध जैन, पारसी और इसाई हैं और शेष छह लाख मुसलमान। कानूनी प्रावधान के तहत ये सब 19 लाख लोग फॉरेन नेशनल ट्रिब्यूनल्स यानी विदेशियों के लिए गठित विशेष अदालतों में अपने नाम एनआरसी में शामिल कराने के लिए याचिकाएं दे सकते हैं।

नागरिकता कानून यानी सीएए का असर या काम यहां से आरंभ होता है। इस संशोधन के कारण इन 19 लाख में से जो 13 लाख हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं और जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश कर चुके थे उन्हें तो अवैध प्रवासी नहीं गिना जाएगा और इस कारण भारत में पांच साल रहने के बाद वे भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे।

लेकिन जो छह लाख बाकी बचेंगे उन्हें अवैध प्रवासी गिना जाएगा और इसीलिए उन्हें ट्रिब्यूनल्स का सहारा लेना पड़ेगा। वहां जो होगा सो होगा।

अब तक जो अनुभव असम में गठित इन ट्रिब्यूनल्स का हुआ है वह तो उत्साहजनक नहीं लगता।

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