गंगोत्री से आई मां गंगा की मूर्ति की होती है जयपुर में पूजा-अर्चना…

महाराजा माधोसिंह द्वितीय गंगा माता के थे उपासक.. गंगा सप्तमी पर हुआ था पृथ्वी पर मां गंगा का हुआ प्रार्दुभाव जयपुर में है मां गंगा का बड़ा दरबार, कुल 13 गंगा माता के मन्दिर गंगा सप्तमी 14 मई को..

Sameer Ur Rehman
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जयपुर। महादेव शिव के सिर पर विराजित मां गंगा जब कल-कल बहती हुई हिमालय की तराइयों से होती हुई ऋषिकेश और हरिद्वार के पावन तटों को पवित्र करते हुए आगे बढ़ती है तो हर इंसान अपने कर्मों और अपने पापों के प्रायश्चित के लिए मां गंगा के पवित्र जल से जहां स्नान करता है वही, गंगाजल का चरणामृत पीकर मां गंगा की उपासना करता है और मां गंगा के चरणों में अपना जीवन समर्पित करके समस्त पापों से मुक्ति पता है।

जी हां 14 मई को इन्हीं मां गंगा का “गंगा सप्तमी महापर्व” का आगाज होगा और पूरे जयपुर शहर में माता गंगा की मंत्रोच्चार के साथ भव्य पूजा अर्चना होगी।हिंदू पंचांग के अनुसार, वैशाख माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली सप्तमी तिथि की शुरुआत 13 मई, 2024 शाम 5 बजकर 20 मिनट पर होगी। वहीं, अगले दिन यानी 14 मई, 2024 शाम 6 बजकर 49 मिनट पर इस तिथि का समापन होगा। उदयातिथि को देखते हुए गंगा सप्तमी का पर्व 14 मई, 2024 को मनाया जाएगा।

राजस्थान की राजधानी जयपुर के आराध्यदेव गोविंददेवजी मन्दिर के पीछे इस मंदिर को राजधानी में मां गंगा का बड़ा दरबार भी कहा जाता है। यहां हरिद्वार (उत्तराखंड) से मंगाए गए गंगाजल से प्रतिदिन मां गंगा के अभिषेक की परंपरा आज भी जारी है।
गंगा माता के इस मंदिर में उत्तराखंड के गंगोत्री तीर्थ स्थल से लाई गई श्वेत पाषाण निर्मित मां गंगा की इस मूर्ति की नियमित मंत्रोच्चार के साथ भव्य पूजा अर्चना होती है।

जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। ‘गोविंद देवजी मंदिर’ के पीछे जयनिवास उद्यान में बना गंगा माता मंदिर कई मायनों में ख़ास है। यहाँ का स्थापत्य, शिल्प, खूबसूरती और विशेषताएं ही दर्शनीय नहीं हैं, बल्कि ख़ास हैं इस मंदिर के निर्माण के पीछे राजपरिवार के सदस्यों की भावनाएं।

“आस्था की नगरी” और “छोटी काशी” कहलाने वाले ‘गुलाबी शहर’ जयपुर की बात ही कुछ निराली है। यहां के महल, दुर्ग, प्राचीरें और मंदिर सिर्फ स्थापत्य का नायाब नमूना ही नहीं हैं, जयपुर का हर पत्थर एक कहानी कहता है। इतिहास की तह में जाएं तो जयपुर के बारे में ऐसी कहानियां सामने आती हैं, जिन पर आज के युग में विश्वास करना कठिन है। जयपुर का शाही ठाठ सिर्फ दिखावटी नहीं था, और न ही यह शान शौकत यहां के राजा महाराजाओं की सनक थी। जयपुर शौक और शाही आदतों का शहर है। यहां श्रद्धा भी एक रिवाज के साथ निबाही गई है। कुछ ऐसा ही जयपुर के ‘गोविंद देवजी मंदिर’ में स्थित ‘गंगा माता मंदिर’ के बारे में कहा जा सकता है।

मूल्यवान स्वर्ण कलश

जयपुर के राजपरिवार की अमूल्य भावनाओं के साथ इस संगमरमर और लाल पत्थरों से बने मंदिर में कुछ बहुत ही मूल्यावान वस्तु भी है। वह है इस मंदिर में गंगा माता की मूर्ति के पास रखा लगभग 11 किलोग्राम का स्वर्ण कलश। 10 किलो तथा 812 ग्राम के इस सोने के कलश में गंगाजल को सुरक्षित रखा गया है। इतने मूल्यवान कलश के लिए यहाँ बंदूकधारी प्रहरी भी नियुक्त किए गए हैं।

गंगा भक्त माधोसिंह

इतिहास को विलोपित करते हुए जयपुर शहर की जनता , जहां गाहे-बगाहे जयपुर के सवाई माधोसिंह द्वितीय को जहां मनचाहे शब्दों में बदनाम करती है।वही, दूसरी ओर इतिहास के वास्तविक साक्षी यह बताने में पीछे नहीं है कि जयपुर राज्य के महाराजा माधोसिंह द्वितीय जैसा आध्यात्मिक, धर्मपरायण और मां गंगा का अनन्य भक्त जयपुर ही नहीं, वरन, देश और दुनिया में दूसरा कोई नहीं हुआ।जयपुर के सवाई माधोसिंह द्वितीय गंगा के अनन्य भक्त थे। उनकी दिनचर्या में गंगाजल इस कदर समाया था कि स्नान करने, पीने और पूजा-पाठ में वे गंगाजल का ही इस्तेमाल किया करते थे। महाराजा माधोसिंह के लिए हरिद्वार से निरंतर गंगाजल लाया जाता था।

सवाई माधोसिंह अपनी रानियों के साथ गर्मी में गंगा किनारे विश्राम करने के लिए शाही रेल से जाया करते थे। हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ पर बहने वाली गंगा की बदली धारा को वापस लाने अंग्रेज़ सरकार पर दबाव बनाने के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय के बुलावे पर वे हरिद्वार गए थे। 1910 ई. में जब जयपुर प्लेग की चपेट में आ गया, तब भी महाराजा माधोसिंह प्रार्थना करने के लिए हरिद्वार गए थे। प्रिंस एडवर्ड जब ब्रिटेन की गद्दी पर बैठे, तब महाराजा माधोसिंह द्वितीय को बुलाया गया। किंतु इंग्लैण्ड गंगाजल कैसे ले जाया जाता। न जाते तो मित्र को नाराज़ करते। आखिर हल निकाला गया। दस हज़ार से ज़्यादा चाँदी के सिक्कों को पिघलाकर दो विशाल कलशों का निर्माण कराया गया। इनमें गंगाजल इंग्लैण्ड ले जाया गया। यही नहीं , यात्रा से पूर्व विमान को भी गंगाजल से धोया गया। ये विशाल कलश आज भी सिटी पैलेस के ‘सर्वतोभद्र’ में देखे जा सकते हैं। गंगा माता के लिए अनंत आस्था के चलते उन्होंने वर्ष 1914 में ‘गोविंद देवजी मंदिर’ के परिसर में गंगामाता का भव्य मंदिर बनवाया। इसी मंदिर में लगभग 11 कि.ग्रा. के स्वर्ण कलश में गंगाजल भरवाकर यहां रखवाया। उस समय इस मंदिर के निर्माण पर लगभग 36 हज़ार रुपए खर्च हुए थे।[१]

मूर्ति के लिए मंदिर

महाराजा सवाई माधोसिंह की पटरानी जादूनजी मां गंगा की अनन्य भक्त थी। उनके पास ‘जनानी ड्योढी महल’ में गंगा माता की एक मूर्ति थी। यह श्वेत पाषाण मूर्ति उत्तराखंड के गंगोत्री तीर्थ स्थल से जयपुर लाई गई थी।
पटरानी की सेविकाएं गंगा माता की सेवा, पूजा किया करती थीं। रानी की इच्छा थी कि इस मूर्ति की पूजा निरंतर होती रहे। इसी कारण इस मंदिर के निर्माण का विचार महाराजा माधोसिंह को आया। उन्होंने मकराना से संगमरमर और करौली से लाल पत्थर मंगाकर मंदिर का निर्माण कराया।

पत्थर चोरी की घटना

मंदिर से जुड़ी एक और अनोखी घटना का वर्णन मिलता है। मंदिर के निर्माण के लिए मकराना और करौली से घड़ाई के कलात्मक पत्थर मंगाए गए थे। लेकिन धीरे-धीरे निर्माण स्थल से ये पत्थर चोरी होने लगे। मंदिर के पत्थर चोरी की अनोखी घटना ने सभी को अचरज में डाल दिया। साथ ही सत्य की तह तक पहुंचना भी ज़रूरी था। महाराजा ने गुप्तचरों को इस राज की गुत्थी सुलझाने को कहा। पता चला कि स्थानीय लोग चोरी चुपके यहां से एक-एक पत्थर सरका रहे थे। ये सभी लोग वे थे, जिन्हें भांग घोटने की आदत थी। सभी के बारे में महाराजा को जानकारी लगी तो कुछ को तलब किया गया। भांग घोटने वालों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि इस पत्थर पर भांग बहुत ही अच्छी घुटती है, इसलिए पत्थर चोरी करना पड़ा। महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय ने सभी पत्थर चोरों को क्षमा कर दिया।

दुर्लभ चित्र और शिलालेख

मंदिर में दुर्लभ और बेशकीमती स्वर्ण के कलश के अतिरिक्त राधा-कृष्ण और हरिद्वार की ‘हर की पौड़ी’ के दुर्लभ और सुंदर चित्र सजे हैं। यहां कवि पंडित रामप्रसाद द्वारा गंगा की महिमा के लिए रचा गया शिलालेख आज भी ज्यों का त्यों है। मंदिर के भित्तिचित्र, शिल्प और स्थापत्य देखने योग्य हैं, जो पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।

दक्षिणमुखी शंख

मंदिर में दक्षिणमुखी शंख भी है, जो कि बहुत कम मंदिरों में देखने को मिलता है। जयपुर के पूर्व राजघराने के पं. रामप्रसाद के ब्रज भाषा में रचित तीन छंदों को संगरमरमर के फलक पर उत्कीर्ण करवाकर मंदिर के गर्भगृह में लगाया गया। सांधार शैली में बने मंदिर को रियासतकाल से ही सुरक्षा प्रदान की गई थी। वर्तमान में भी यहां जवान पहरेदारी करते दिखे। इस मंदिर को बनाने में 24 हजार की कुल लागत आई थी। इस मंदिर का निर्माण 109 वर्ष पूर्व 1914 में हुआ था।

संगमरमर और करौली से मंगाए पत्थरों से बनाए मंदिर में मां गंगा की संगमरमर से निर्मित प्रतिमा को चांदी के पाट (सिंहासन पर) विराजमान किया गया। निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुसार यहां प्रतिदिन सेवा-पूजा होती है। दूसरे सिंहासन पर रखे स्वर्ण कलश में गंगोत्री से मंगाया गंगाजल भरा हुआ है, जिसे कि मां यमुना का स्वरूप माना जाता है। देवस्थान विभाग की ओर से हरिद्वार से मंगाए गंगाजल को इस कलश में मिश्रित कर माता का अभिषेक किया जाता है। जनश्रुति यह भी है कि महाराजा माधोसिंह के दो जुड़वां पुत्र गंगासिंह और गोपाल सिंह की अल्पायु में मृत्यु हो गई थी। इनकी स्मृति में ही मंदिर का नाम रखा गया। राजकीय श्रेणी के देवस्थान विभाग के अधीन इस मंदिर में मां गंगा की अष्टधातु निर्मित प्रतिमा भी है।

जयपुर में है गंगा माता के 13 मंदिर..

राजधानी में गंगा माता के करीब 13 मंदिर हैं। सबसे अधिक मन्दिर चौड़ा रास्ता से जौहरी बाज़ार के मध्य स्थित गोपाल जी के रास्ते में है।

यह मंदिर भी प्राचीन

चांदपोल बाजार के बाहर गंगा माता मंदिर खंडेलवाल वैश्य जाति मंदिर समिति के तत्वावधान में स्टेशन रोड स्थित गंगा माता मंदिर भी 100 वर्ष से अधिक पुराना है। यहां मां गंगा के साथ भगवान सालिगराम और हनुमान जी भी विराजमान हैं। नाटाणी परिवार के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोविंद नाटाणी ने बताया कि वर्षभर भक्तों की आवाजाही के साथ ही गंगा सप्तमी के साथ ही गंगादशमी पर भी मेला भरता है।गंगा सप्तमी को हुआ था पृथ्वी पर मां गंगा का प्रार्दुभाव
सनातन धर्म में गंगा सप्तमी का विशेष महत्व बताया गया है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को गंगा सप्तमी का पर्व मनाया जाता है।

हिंदू पंचांग के अनुसार गंगा सप्तमी का पर्व मंगलवार 14 में 2024 को मनाया जाएगा। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां गंगा की पूजा अर्चना करने से पाप नष्ट होते हैं।
आध्यात्मिक गुरु और ज्योतिषाचार्य राजेन्द्र कुमार शर्मा ने बताया कि ऐसा पौराणिक आख्यान है कि इक्ष्वाकु वंश के महाराज सागर के पौत्र महाराज भगीरथ अपने 60 हजार पूर्वजों की मुक्ति के लिए स्वर्ग लोक से गंगा जी को पृथ्वी पर लाए थे। क्योंकि, उनके 60 हजार पूर्वज महर्षि कपिल के शाप से भस्म हो गए थे। उनकी आत्मा शांति के लिए यह आवश्यक कार्य था।
उन्होंने कई हजार वर्षों तक ब्रह्मा जी की तपस्या की। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और वरदान दे दिया कि गंगा जी को तो स्वर्ग से छोड़ देंगे लेकिन सीधी गंगा जी पृथ्वी पर जाएंगी तो पाताल में समा जाएंगी। इसके लिए भगवान शिव की तपस्या करो। उसके पश्चात महाराज भगीरथ ने शिव की वर्षों तक तपस्या की। भगवान शिव प्रसन्न हुए और वे अपनी जटाओं को खोलकर खड़े हो गए। स्वर्ग लोक से कल-कल करती हुई गंगा की निर्मल धारा पृथ्वी की तरफ बढ़ने लगी। भगवान शिव ने गंगा की पवित्र धारा को अपनी जटाओं में समाहित कर लिया और अपनी जटाओं की एक लट खोल दी। जिसमें से धीरे-धीरे जहां पर आज गंगोत्री धाम है, वहां से गंगा पृथ्वी पर अवतरण हुई।

ज्योतिषाचार्य पं. नीरज शर्मा ने बताया कि जब गंगा का प्रादुर्भाव हुआ और आगे-आगे भागीरथ और पीछे-पीछे मां गंगा उत्तर भारत को पल्लवित पुष्पित एवं पृथ्वी को शस्य श्यामला बनाती हुई गंगासागर मे पहुंच गईं। तब, जहां महाराज भागीरथ के 60 हजार पूर्वज भस्म हो गए थे। उनको उनकी आत्मा को मुक्ति मिल गई। इस प्रकार कल- कल करती हुई गंगा ने पूरे उत्तर भारत को अपने पवित्र जल से पवित्र कर दिया। उन्होंने बताया कि पृथ्वी पर गंगा के अवतरण दिवस पर बहुत से लोग गंगा स्नान करते हैं। साथ पापों से मुक्ति के लिए गंगा की महिमा के श्लोक, मंत्र जाप और प्रार्थना करते हैं। गंगा स्नान करने वाला व्यक्ति ज्ञात-अज्ञात पापों से मुक्त हो जाता है।

विवाह के लिए पूजा

यदि आपके विवाह में देरी हो रही है, तो आपको गंगा सप्तमी पर गंगाजल में 5 बेलपत्र डालकर भगवान शंकर का अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से शिव जी प्रसन्न होते हैं। साथ ही देवी गंगा का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसके अलावा यह उपाय करने से विवाह से जुड़ी सभी मुश्किलें समाप्त होती हैं और मनचाहा वर मिलता है।

सफलता के लिए पूजा

यदि आपको किसी काम में लगातार असफलता मिल रही है, तो आपको गंगा सप्तमी के दिन देवी गंगा को दूध अर्पित करके उनकी विधि अनुसार पूजा करनी चाहिए। साथ ही उनके वैदिक मंत्रों का जाप करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस उपाय को करने से व्यक्ति को हर काम में सफलता मिलती है।

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