Jaipur News /हरीश गुप्ता। ऑनलाइन सस्ते दाम पर देसी घी खरीद कर अगर आप सोच रहे हैं कि सेहत बन रही है तो सावधान। यह नकली घी है, जिसे खाने से स्वास्थ्य बनना तो दूर कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है। यह अपने आप में धीमा जहर है, लेकिन खाद्य विभाग, स्वास्थ्य विभाग व पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही है।
ऑनलाइन शॉपिंग के जितने भी बड़े ऐप है सभी में देसी घी करीब साढे 400 रुपए में 1 लीटर के हिसाब से आ जाता है। तौल के हिसाब से भी देखा जाए तो 890 ग्राम के करीब होता है।
वैसे कुछ ब्रांड का देसी घी 400 रुपए में भी आ जाता है। इन एप पर कई नामी कंपनियों का भी देसी घी मिल जाता है। उसकी रेट ब्रांड के हिसाब से होती है।
कुछ सालों पहले तक राजस्थान में विशेषकर जयपुर-बीकानेर में पुलिस ने नकली घी बनाने वाली कई फैक्ट्रियों पर छापेमारी कर ‘जहर’ बनाने वालों को गिरफ्तार किया है।
उस समय पूछताछ में सामने आया कि नकली घी वाले अपना ‘जहर’ छोटे शहरों व कस्बों में बेचते थे। वहां उनके माल की खपत भी अच्छी होती थी।
देखा जाए तो शुद्ध देसी घी 1000 से 1800 रुपए किलो तक बिकता है। शुद्धता की गारंटी यही है कि विश्वास वाले व्यक्ति के माध्यम से खरीदो। वरना वह भी संभावना रहती है कि वहां से भी हल्की मिलावट कर शुद्ध देसी घी के नाम पर मिलावटी माल मिल जाए।
सूत्रों ने बताया कि नकली माल वाले जो पहले छोटे कस्बों या छोटे शहरों में सप्लाई करते थे, अब ऑनलाइन के माध्यम से सभी जगह ‘ज़हर’ खपा रहे हैं।
उसका कारण है खाद्य विभाग, स्वास्थ्य विभाग व पुलिस ऑनलाइन वालों को चेक ही नहीं कर रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि डिब्बे पर रेट तो ऐसी प्रिंट होगी कि आपको लगे असली ही होगा, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि शुद्ध तेल की रेट में घी कैसे मिल सकता है।
सूत्रों ने बताया कि यह जहर निर्माता जयपुर, बीकानेर और आगरा में बड़ी संख्या में है। सवाल खड़ा होता है खाने-पीने की हर वस्तु पर फसाई नंबर, कहां बना, कब बना, किसके लिए बना सभी जानकारी लिखना अनिवार्य है, फिर कार्रवाई क्यों नहीं हो सकती?
पुलिस व क्राइम ब्रांच ‘जहर’ बनाने वाले ऐसे लोगों पर निगाह क्यों नहीं रखती जिन्हें पूर्व में ऐसा ‘महान’ करते गिरफ्तार किया जा चुका है? नकली मावा बनाने व सप्लाई करने वाले तो पिछले दिनों कुछ हत्थे चढ़े, लेकिन घी वाले क्यों हत्थे नहीं चढ़ रहे? क्या ‘चिकनाई’ में सभी ‘फिसल’ गए?
आपको बता दें शॉपिंग ऐप कई हैं तथा नकली वाले ब्रांड भी कई है। ऐसा नहीं कि जांच व धरपकड़ करने वालों के घर भी नहीं आता। हर कोई गांव से नहीं मंगवा सकता।
तो ऑनलाइन मंगवा कर छापेमारी क्यों नहीं की जा सकती? हो सकता है कि ‘जिम्मेदार’ भी ‘जहर’ ही खा रहे हों?
भगवान ना करें अगर किसी दिन किसी बैच में वाकई में कुछ जहरीला रसायन मिलकर आ गया तब भी तो कार्रवाई होगी? तो पहले से क्यों नहीं की जा सकती?