Tonk /सुरेश बुन्देल । जंगे-आजादी में भले ही टोंक रियासत ने मजबूरी में चुप्पी साधी रखी मगर चुनिन्दा शख्श ऐसे भी हुए, जिनके दिलो- दिमाग में देश को आजाद कराने की होड़ मची हुई थी। जिनके हौसलों में स्वाधीनता संग्राम में योगदान देने के लिए क्रांति की चिंगारी धधकती रही।
आम आदमी होने के बावजूद देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखते थे। हालांकि उन्हें वो तारीखी तवज़्जो और मुकाम नहीं मिले, जिसके वो हकदार थे। ऐसे देशभक्तों में अजमेर से टोंक आ बसे अब्दुल कादिर खंदा, नगरफोर्ट के पण्डित श्रीनिवास शर्मा, निवाई के देवा गुर्जर व केसर लाल, देवली के गोरधन मल गोयल और कुचलवाड़ा (जहाजपुर ) के रामचन्द्र सराधना अहम रहे।
इसके अलावा एक चौदह साल का एक लड़का भी था, जो गांधी जी के आव्हान पर घर से भागकर दिल्ली पहुंचा। लिहाजा बरतानिया हुकूमत ने उसे दिल्ली की सेंट्रल जेल में तीन माह के कारावास की सजा तो दी ही, कोड़े मारने सरीखी यातनाएं भी दी गई। खास बात यह रही कि उस वक़्त टोंक शहर के एक किशोर ने मुल्क को वतनपरस्ती का सबक दिया, जिसकी जरूरत गुलाम भारत में सबसे ज्यादा रही होगी। उस शख्स को टोंक के बाशिन्दे हुकुम सिंह सोलंकी के नाम से जानते हैं।
दुर्भाग्य से नहीं मिला पर्याप्त मान- सम्मान
बालक हुकुम का जन्म पुरानी टोंक के गढ़ माणक चौक में 20 जून 1928 को हुआ। चूंकि मां- बाप को बचपन में ही खो देने वाले हुकुम का बचपन परेशांहाली में बीता, चुनांचे उनकी परवरिश उनके चाचा सा ने की।
आजाद भारत में सरकार ने बतौर इनाम हुकुम सिंह सोलंकी को चिकित्सा महकमे में मामूली ओहदे पर तैनाती दी, जहां से वे 1983 में रिटायर हुए। उसके बाद उन्हें प्रशासनिक स्तर पर कई मर्तबा सम्मान भी मिला, राज्य सरकार ने ताम्र पत्र भी दिया लेकिन आजाद मुल्क का निजाम उन्हें ना तो पेंशन दे सका और ना ही किसी तरह की माली इमदाद कर पाया। सरकार के लिए उनके प्रमाण पत्र व सम्मान पत्र नाकाफी थे लिहाजा उनके परिवार की कोई मदद ना हो सकी।
अफसोस की बात तो यह कि उनकी याद में किसी तरह का बड़ा काम भी ना हो सका। उनके नाम पर ना तो किसी रास्ते का नामकरण किया गया और ना ही उनका फोटो किसी जगह पर दिखाई देता है। वे 28 जून 2009 को रुखसत होकर दुनिया को अलविदा कह चुके हैं मगर उन पर जिले की अवाम हमेशा गर्व करती रहेगी। वाकई उनके वतनपरस्ती के जज़्बे बेनजीर और बेमिसाल थे।
सुरेश बुन्देल- टोंक @कॉपीराइट