Tonk News / सुरेश बुन्देल । शायर को खुदा का शागिर्द भी कहा गया है और शायरी को पैगम्बरी का हिस्सा। कौन जानता था कि 4 मई 1905 को इल्मो- अदब की सरज़मीने- टोंक में मोहम्मद दाऊद ख़ां नाम का शख्स पैदा होगा, जिसके अशआरों में दिलकश अक्कासी होगी और हर लफ़्ज़ मोहब्बत- रोमांस- इश्क़ से लबरेज़ होगा? तमाम दुनिया में अदबी नाम ‘अख्तर शीरानी’ से मशहूर हुए शायर टोंक की आलमी व अदबी विरासत का बेशकीमती सरमाया हैं। कहा जाता है कि अख्तर शीरानी को उर्दू की शुरूआती तालीम अपनी चची से मिली। कमसिनी में ही मौलवी अहमद ज़मां साहब और मौलवी साबिर अली ‘शाकिर’ की तरबियत में फ़ारसी ज़ुबान से मुताल्लिक सबक लिए। अख़्तर को शायरी का शगल होना ही था। उनकी बेहतरीन ग़ज़लगोई का नमूना
देखिए:-
“ओ देस से आने वाले बता!
अब नामे- खुदा, होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई?
दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई?
घर पर ही रही या घर से गई, ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई?”
अख़्तर शीरानी को उर्दू का सबसे अज़ीम शायर कहा जा सकता है। मारूफ़ विलायती कवियों विलियम वर्ड्सवर्थ की ‘लूसी’ और जॉन कीट्स की ‘फैनी’ के किरदार की मानिंद शीरानी ने भी अपनी काल्पनिक प्रेयसी ‘सलमा’ के किरदार को अमर बना दिया। उनके करीबी दोस्त हक़ीम नैयर वास्ती के मुताबिक़ सलमा एक बेहद खूबसूरत औरत थी, जिसकी मोहब्बत में शायर के दिल से नग्मे दरिया की तरह बह निकलते हैं।
“बहारे- हुस्न का तू ग़ुञ्चा- ए -शादाब है सलमा,
तुझे कुदरत ने अपने दस्ते- रंगी से संवारा है,
बहिश्ते- रंगो- बू का तू सरापा इक नज़ारा है,
तेरी सूरत सरासर पैकरे- महताब है सलमा,
तेरा जिस्म इक हुजूमे- रेशमो- कमख़्वाब है सलमा!”
#अख़्तर शीरानी का नाम ज़ुबान पर आते ही महान दार्शनिक ‘योहांन वुल्फ़गांग फान गेटे’ की वो बात याद आ जाती है, जिन्होंने मोहब्बत और दर्द के ज़ज़्बातों का ज़िक्र करते हुए कहा था कि प्रेम और वेदना संसार की हर चीज़ में मौज़ूद है, जिसका ज़िन्दा वज़ूद औरत है। हर आदमी की तरह शीरानी भी इस कैफियत से अपने अलहदा अंदाज़ में गुज़रे। ‘सलमा’ के अलावा अख़्तर ने ‘रेहाना,’ ‘अज़रा,’ ‘शीरीं,’ ‘शम्सा,’ ‘नसरीन,’ ‘नाहिद’ आदि अपनी कई ‘ख़्वाबी मलिकाओं’ का बेसाख्ता ज़िक्र अपनी शायरी में किया, जिसकी मिसाल देखिए-
“परी- ओ- हूर की तस्वीरे- नाज़नीं ‘अजरा’,
शहीदे- जल्वा- ए- दीदार कर दिया तूने,
नज़र को महशरे- अनवार कर दिया तूने!
वो शम्म- ए- हुस्न थी पर सूरते- परवाना रहती थी,
यही वादी है वो हमदम जहां ‘रेहाना’ रहती थी।”
#हक़ीक़त यही थी कि ‘सलमा’ नाम की काल्पनिक औरत ‘अख़्तर’ की शायराना मिजाज की रूह थी, जिसकी मोहब्बत में शीरानी के लफ़्ज़ों से रोमांस के झरने बह निकलते थे। रोमांस बहुत उलझी हुई अवधारणा है। कोई अपनी प्रेमिका की कल्पना मात्र से रोमांचित हो जाता है, तो कोई उसके ज़िस्म से लिपटना चाहता है। कोई रोमांस की वजह से कुदरत का शैदाई हो जाता है। अख़्तर शीरानी के रोमांसवाद का ‘दाग़’ देहलवी’, ‘शाद’ अज़ीमबादी और अज़मत उल्ला ‘अज़मत’ के रोमांसवाद से बेहद करीबी रिश्ता है। अख़्तर की शायरी यौवन के स्वाभाविक सौन्दर्य की शायरी है।
ख़्वाबों की शायरी, जो पूरी दुनिया को अपने नज़रिए से देखना चाहती है। लिहाज़ा अख्तर को उर्दू की रोमांसवादी शायरी का बेजोड़ शायर कहना यक़ीनन मुनासिब होगा। शायरी के अलावा अख्तर ने उर्दू की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हुमायूं’ और 1925 में ‘इन्तिख़ाब’ का सम्पादन किया। 1928 में रिसाला ‘ख़यालिस्तान’ निकाला तथा 1931 ई. में ‘रोमान’ जारी किया। कुछ वक़्त तक उन्होंने मौलाना ताजवर नजीबाबादी की मासिक पत्रिका ‘शाहकार’ का सम्पादन भी किया।
1935 में अख़्तर को हैदराबाद दक्कन के एक अदबी इदारे ‘दारुल- तर्जुमा’ ने अपने यहां ऊंचे ओहदे पर बुलाने की तज़वीज़ रखी लेकिन अख़्तर ने अपनी बेहिसाब मशहूरी और बेतहाशा शराबनोशी की वजह से पेशकश ठुकरा दी। लाहौर कॉलेज में प्रोफ़ेसर रहे उनके वालिद ने बाकायदा अख्तर की शादी भी की, तीन- चार बच्चे भी हुए लेकिन ‘अख़्तर’ को ना तो संभलना था और ना ही वे सम्भले। शराबनोशी का सिलसिला मुसलसल 1943 तक क़ायम रहा।
माहौल बदलने की गरज़ से उनके वालिद उन्हें टोंक वापस ले गए। 1943 से 1947 तक का वक़्त गुमनामियों में गुज़रा। हालांकि टोंक में अख़्तर को कुछ नहीं हुआ लेकिन विभाजन के बाद 9 सितम्बर 1948 को उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने बड़ी दयनीय दशा में लाहौर के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। उनकी मौत के बाद उनकी टूटी- फूटी संदूक को खोला गया तो उसमें चंद मुसव्विदों और हसीनों के ख़ुतूतों के सिवाय कुछ ना मिला।
“ग़रज़ ‘अख़्तर’ की सारी ज़िंदगी का ये खुलासा है!
कि फूलों की कहानी कहिए, शोलों का बयां लिखिए!!