दूनी (हरि शंकर माली)। देवली उपखण्ड के श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे महाराज ससंग मे मुनि श्री सुधा सागर जी ने अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की सास ससुर का धन अगर दामाद खाय ओर खुद सामार्थवान होने के बावजूद भी वह पिता के धन पर आस लगाय वह स्वान की योनि को भोगता है ।
पराया धन को हमेशा दान पुण्य मे लगाया जाना ही धर्म कहलाता है ।मुनीश्री ने कर्म कर्मकाण्ड के विषय पर बताया की आत्मा के दर्शन गुण को जो ढकता है वह दर्शनावरण है, जैसे दरवाजे पर बैठा हुआ पहरेदार राजा का दर्शन नहीं होने देता है। सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है, जैसे शहद लपेटी तलवार जिह्वा पर रखने से शहद चखने का सुख और जीभ कटने का दु:ख हो जाता है।
जो जीव को मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है, जैसे लोहे की साँकल या काठ का यंत्र जीव को दूसरी जगह जाने नहीं देता है। जो अनेक तरह के शरीर आदि आकार बनावे वह नामकर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है। जो जीव को ऊँच-नीच कुल में पैदा करे वह गोत्र कर्म है, जैसे कुंभकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। जो ‘अंतर एति’ दाता और पात्र में अंतर-व्यवधान करे, वह अंतराय कर्म है। जैसे भंडारी (खजांची) दूसरे को दान देने में विघ्न करता है-देने से रोक देता है उसी तरह अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग आदि में विघ्न करता है।
इस प्रकार से आठ कर्मों का लक्षण और स्वभाव बतलाया गया है। भगवान के दर्शन सच्चे दिल से करना चाहिए।उन्होंने कहा, पापी पेट के भरने की बात बेमानी है। पेट पाप करने के लिए नहीं कहता, अपितु जीने के लिए पेट भरना पड़ता है। बोले, पेट भरने के लिए जीना और जीने के लिए पेट भरना, समझना ही मुख्य समझ है। जब बेटा जवान हो जाता हे तो उसे खुद को कमाने दे नाकी उसकी धन देकर सहायता करे, तभी उसे उस धन की कदर समझ मे आएगी।
एक अच्छे मानव में ही दानशीलता का गुण होता है।
जैन ग्रंथों में पात्र, सम और अन्वय के भेद से दान के चार प्रकार बताए गए हैं। पात्रों को दिया हुआ दान पात्र, दीनदुखियों को दिया हुआ दान करुणा, सहधार्मिकों को कराया हुआ प्रीतिभोज आदि सम, तथा अपनी धनसंपत्ति को किसी उत्तराधिकारी को सौंप देने को अन्वय दान कहा है। दोनों में आहार दान, औषधदान, मुनियों को धार्मिक उपकरणों का दान तथा उनके ठहरने के लिए वसतिदान को मुख्य बताया गया है।
ज्ञानदान और अभयदान को भी श्रेष्ठ दानों में गिना गया है। दानशील मनुष्य वही होता है जो करुणावान हो, त्यागी हो और सत्कर्मी हो। एक अच्छे मानव में ही दानशीलता का गुण होता है। जिसके हृदय में दया नहीं वह दानी कभी नहीं हो सकता और वह दान ऐसा हो जिसमें बदले में उपकार पाने की कोई भावना न हो। दाधीचि का दान, कर्ण का दान और राजा हरिश्चंद्र के दान ऐसे ही दान की श्रेणी में आते हैं। अथर्ववेद के एक श्लोक में लिखा है कि सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और हजार हाथों वाला होकर समदृष्टि से दान देना चाहिए। किए हुए कर्म का और आगे किए जाने वाले कर्म का विस्तार इसी संसार में और इसी जन्म में करना चाहिए। हमें इसी संसार में और इसी जन्म में जितना संभव हो सके, दान करना चाहिए। यदि हम ईश्वर की अनुभूति के अभिलाषी हैं तो हमें उसकी संतान की सहायता हरसंभव करनी चाहिए।
ईश्वर का अंश हर मानव में मौजूद है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसके बनाए जीव की यथासंभव सहायता करें। यदि हम प्रकृति से कुछ सीख लें तो वृक्ष भी परोपकार के लिए फल देते हैं। नदियों का जल भी परोपकार के लिए होता है। शास्त्रों में परोपकार का फल अंत:करण की शुद्धि के लिए जरूरी कहा गया है। यह सच ही है, क्योंकि परोपकार और दान हम तभी करते हैं, जब हम सब प्राणियों के प्रति आत्मवत हों। हम यह अहसास करें कि हर जीव परमात्मा की संतान होने के नाते एक दूसरे से जुड़ा है। इसलिए दूसरे की पीड़ा जब हम स्वयं में महसूस करेंगे तभी दूसरों की सहायतार्थ आगे बढ़ेंगे। दूसरों की वेदना से व्यथित व्यक्ति ही सहृदयी हो सकता है। जो कोमल भावनाएं अपने अंतर्मन में रखता है, वह दैवीय गुणों से संपन्न है और जब दैवीय गुण अंतस में पनपते हैं तो अंत:करण स्वत: शुद्ध हो जाता है। यह निर्विकार सत्य है कि हम अगर दूसरों की सहायता करते हैं तो हमें शांति मिलती है।
दानशीलता भी सत्य धर्म है। परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है। कहते हैं विद्यादान महादान यानी विद्या का दान सर्वोपरि है। यदि हम धन से वस्त्र का दान देंगे, तो वह बहुत बड़ा दान नहीं, किंतु यदि हम किसी दूसरे व्यक्ति को विद्या का दान देते हैं तो इससे उसका सारा जीवन सुखमय हो जाएगा। किसी के मन का अंधकार दूर कर ज्ञान का आलोक देना ब्रह्मादान है।