“रहूँ गिरकर निगाहे बाग़बां से । कफ़स अच्छा है ऐसे आशियां से – बज़्मी साहब टोंकी

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सय्यद ज़ेनुससाजिदीन बज़्मी टोंकी साहब 1930 में जयपुर में पैदा हुए । आपके वालिद सय्यद हमीदउद्दीन अहसन साहब थे जो एक तालीम याफ़्ता शख़्स होने के साथ साथ शाइर भी थे । और मिर्ज़ा माइल देहलवी के शागिर्द थे। बज़्मी साहब को घर ही से तालीम व शाइरी का माहौल मिला ।

आपने फ़ारसी व उर्दू की तालीम हासिल की ओर मज़ाक़ो शऊर की तरबीयत मौलाना मंज़ूर अहमद साहब कोसर सन्देलवी से ली आप काफी अरसे तक जयपुर में ही मुक़ीम रहे । उसके बाद टोंक आ गए आपको किताबों के मुताअले का बहुत शोक़ था आपको फ़ारसी से ज़ियादा लगाव था और आप ज़्यादातर फ़ारसी की किताबों का मुताअला करते थे आप एक क़ाबिले क़द्र इंसान थे ।

आपने अपने कलाम में क़तआत, रुबाई , ग़ज़ल, ओर नज़्म व चहार बेत को अपना तर्ज़ सुख़न बनाया जिसकी वजह से आप अवाम में बहुत मक़बूल हुए । आप मुशायरों मे बहुत कम आते जाते थे । आप बहुत गैरतमंद इंसान थे । जिसका अंदाज़ा आपके इस शेर से लगता है ।

“रहूँ गिरकर निगाहे बाग़बां से ।
कफ़स अच्छा है ऐसे आशियां से ।।
वक़ारे ज़ात का इतना भरम रखना मुहब्बत में ।
करम की हद से बढ़कर रहम के क़ाबिल न हो जाना ।।

बज़्मी साहब का अदबी ख़ज़ाना ग़राँ क़द्र इज़ाफ़े की हैसीयत रखता है आपके जवाहर पारो में शऊरे फ़न की आबोताब के साथ फ़िकरो ख़्याल की रिफ़अत व अज़मत ओर जज़बओ कैफ़ की गहराई नज़र आती है । आपके कलाम में क्लासिकी अक़दार की पाबंदी पाई जाती है । आपने फ़ारसी में एक रुबाई लिखकर हिंदुस्तान के फिल्मी गीतकार मजरुह सुल्तानपूरी साहब को भेजी थी ।

जिसके जवाब में मजरुह साहब ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए लिखा के ऐसी क़ाबिल शख़्सियत अभी भी फ़ने सुख़न में मौजूद हैं और आपको फिल्मी दुनिया मे मुम्बई आने की दावत दी मगर बज़्मी साहब इस मिज़ाज के नही थे । वो नही गए । आप इंसानियत व बशरियत के क़ायल थे। आपका ये शेर इसकी गवाही देता है ।

” ये अज़मतें तुम्हें ख़ुद ही तलाश कर लेंगीं
तुम अपनी ज़ात में शान ए बशर तलाश करो ।।
बज़्मी साहब को ज़बान व बयान पर हाकेमाना क़ुदरत हासिल थी । आपके अशआर जामेे अल्फ़ाज़ के गोहर की चमक हैं ।

अलफ़ाज़ को मिलाकर पढ़ने में ऐसा लुत्फ़ आता है । के पढ़ने वाला उसको बार बार पढ़ने की चाहत रखता है । आजसे तक़रीबन 30 साल पहले शाहगिर्द पेशे में जनाब आबिद शाह साहब के मकान पर एक मुशायरा हुआ था । आपके यहाँ पाकिस्तान से मेहमान आये हुए थे । ग़ालेबन यूनुस हसनी साहब थे। उस मुशायरे में बज़्मी साहब ने भी शिरकत फ़रमाई थी । जब बज़्मी साहब ने अपना कलाम पढ़ना शुरू किया उससे पहले आपने उन मेहमानों की नज़्र ये शेर किया ।

” चराग़ वो नही फ़ानूस जिनके मसकन हैं ।
चराग़ हम हैं जो इन आंधियों में रोशन हैं ।।

ये शेर सुनते ही मुशायरा जो ज़मीनी सतह पर चल रहा था । आसमान की ख़लाओं में गूँजने लगा चारो तरफ़ से वाह वाह बज़्मी साहब, क्या कहने उस्ताद, वाह ये आप ही को हक़ पहुँचता है , फिर फ़रमायें, फिर अता कीजिये कि आवाज़े गूंज उठी और ये मुशायरा काफ़ी देर रात तक चला ।

आपके शागिर्द शोक़ अहसनी साहब की करम फ़रमाई की वजह से मुझे भी हज़रत की ख़िदमत में केई बार जाने का मौक़ा मिला । आपने मुझे बहुत मुहब्बत व शफ़क़त से नवाज़ा आपकी गुफ्तगू व अंदाज़े बयान की चाशनी की वजह से वक़्त का एहसास ही नही होता था।

आफ़ताब की रोशनी माहताब में ढल जाती थी । मगर वहां से उठने को तबियत नही चाहती थी । आपके बयान में अदब, शाइरी पर गुफ़्तुगू व तसव्वुफ़ पर बुज़ुर्गाने दीन के वाक़ियात शामिल होते थे। आपका ख़ानदानी ताआल्लुक़ तरीक़त के बुज़ुर्ग हज़रत मिस्कीन शाह साहब रहमतुल्लाह अलैह से था । जिसकी बिना पर आपकी ज़बान से अक्सर वो बातें निकलती थी । जो एक सूफ़ी की होती हैं ।

इस निस्बत से आपका ये शेर

“सरवरे कोनेंन की निस्बत से चाहो क़ुर्बे हक़ ।
मारेफ़त के वास्ते लाज़िम है इरफ़ाने रसूल ।।
बज़्मी साहब का हमदिया, नातिया, ग़ज़लिया, नज़मीया, सारा कलाम बहुत दिल आवेज़ और शेरीयत व फन से मामूर है आपने एक नज़्म समंदर के उनवान से कही है ये नज़्म शाइरे रूमान अख़्तर शिरानी टोंकी की याद में है ।

आप बहुत मुख़्लिस इंसान थे आप शोहरत व नामो नुमुद से बहुत दूर रहते थे । ख़ामोश तबियत व अलहेदगी पसंद मिज़ाज रखते थे आपका ये शेर समाअत फ़रमाऐं
” तेरी हस्ती न जबतक मुंफरिद एक ज़ात बन जाये ।
हुजूमे कारगाहे दहर में शामिल न हो जाना ।।
बज़्मी साहब अदब व शेरियत की दुनिया में अपना एक अलग मक़ाम रखते है ।

आपको राजस्थान उर्दू एकेडमी ने महमूद शिरानी अवार्ड व तौसीफ़ नामा ओर इनामात से नवाज़ा है आपके तलामिज़ा में रज़ा मियाँ रज़मी साहब, वारिस अली वारिस साहब, साबिर हसन रइस साहब अब्दुल हफिज़ शोक़ साहब, अरशद अब्दुल हमीद अरशद साहब, अज़रा नकहत साहेबा के नाम सरे फ़ेहरिस्त हैं ।

आपने टोंक ही नही बल्कि राजस्थान व राजस्थान के बाहर भी अपनी शाइरी व शख़्सियत का लौहा मनवाया है । आज भी टोंक में चहार बेत पार्टियाँ आपका कलाम पढ़ कर वाह वाही लूटती हैं ।

आप अपनी पूरी ज़िंदगी सादगी व गोशा नशीनी में गुज़ारकर 14 रमज़ान 1424 हिजरी मुताबिक़ 9 नवंबर 2003 बरोज़ पीर इस दुनियां ए फ़ानी को अलविदा कहकर हमेशा क़ायम रहने वाली बस्ती में आबाद हो गए आपने फ़रमाया के ।

“तेरे क़दमों पे सर रखकर मिटा दूं गर निशाँ अपना ।
मेरे क़दमों पे सर रख दे हयाते जावेदां अपना ।।
अल्लाह ताअला आपको जन्नत ए फिरदौस में आला मक़ाम अता फ़रमाये आमीन सुम्मा आमीन ।

आपने अपनी पूरी ज़िंदगी की इब्तेदा व आख़िर पर ये शेर कहा

” इससे बढ़कर ओर क्या होगा उरुजे ज़िन्दगी ।
मौत की आग़ोश में पहुँचे तेरी आग़ोश से ।।
आपके जाने के बाद हमे ऐसा महसूस होता है जैसा के आपने फ़रमाया ।
वो गए तो ज़िन्दगी कुछ यूं नज़र आई के बस ।
ऐसी वीरानी के तोबा ऐसी तन्हाई के बस
खुदा हाफिज़ ।।

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