जो मनुष्य जितना बड़ा होता है, उसकी आलोचनाएं भी उतनी ही बड़ी होती हैं- संत सुधा सागर

liyaquat Ali
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‘मन के मालिक बनो, दास नहीं’

 

 

‘मन को बदलोगे तो परिस्थितिया अपने आप बदलेगी’

 

 

 

देवली/दूनी (हरि शंकर माली) | देवली उपखण्ड के श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी महाराज, मुनि श्री 108 महासागर जी, मुनि श्री 108 निष्कम्प सागर, क्षुल्लक श्री 105 गंभीर सागर, क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज ससंग ने रविवार सुबह अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की आलोचना से कोई भी नहीं बच सकता।

https://youtu.be/s-rbRNYnbfw

जो मनुष्य जितना बड़ा होता है, उसकी आलोचनाएं भी उतनी ही बड़ी होती हैं। इसलिए आलोचना से घबराकर धैर्य नहीं खोना चाहिए। आलोचना दो प्रकार की होती है-रचनात्मक और विध्वंसात्मक।

प्रत्येक मनुष्य को जीवन में किसी-न-किसी समय आलोचना का शिकार होना ही पड़ता है। आलोचक को कभी शत्रु नहीं मानना चाहिए कि वह बदनाम करने के लिए लांछन लगा रहा है। ऐसा सदैव नहीं रहता। भ्रांतियां भी कारण हो सकती हैं।

घटना का उद्देश्य सही रूप से न समझ पाने पर लोग मोटा अनुमान यही लगा लेते हैं कि शत्रुतावश ऐसा कहा जा रहा है। निंदा करने वालों का इसमें घाटा ही रहता है। यदि उसकी बात सत्य है तो भी लोग चौकन्ने हो जाते हैं कि कहीं हमारा कोई भेद इसके हाथ तो नहीं लग गया जिसे यह सर्वत्र बकता फिरे। झूठी निंदा बड़ी बुरी मानी जाती है। विद्वेष उसका कारण माना जाता है।

निंदा सुनकर क्रोध आना और बुरा लगना स्वाभाविक है, क्योंकि इससे स्वयं के स्वाभिमान को चोट लगती है, पर समझदार लोगों के लिए उचित है कि ऐसे अवसरों पर संयम से काम लें। आवेश में आकर विवाद न खड़ा करें। यह देखें कि ऐसा अनुमान लगाने का अवसर उसे किस घटना या कारणवश मिला।यदि उसमें व्यवहार-कुशलता संबंधी भूल रही हो तो उससे बचकर रहें। यदि बात सर्वथा मनगढंत सुनी-सुनाई है तो अवसर पाकर यह उन्हीं से पूछा जाना चाहिए कि उसने इस प्रकार गलतफहमी क्यों उत्पन्न की, एक बार कारण तो पूछ लिया होता।

इतनी छोटी बात से उसका मुख भविष्य के लिए बंद हो जाएगा और यदि कही बात सत्य है तो आत्मसुधार की बात सोचनी चाहिए। इस संसार में जल, वायु पर्याप्त मात्रा में है, लेकिन मनुष्य पर निर्भर करता हैं कि वह उसका किस प्रकार उपयोग करता है।

जिस प्रकार जल को कीचड़ में डालने से वह कीचड़ बन जाता हैं और उसी जल को भगवान पर अभिषेक करने से वह गंधोधक बना सकता हैं। दानव से मानव बनाने के लिए स्कूल से संस्कार लिए जाते हैं और मानव से भगवान बनाने के लिए तीर्थ बनाए जाते हैं।

प्रशंसा जो पचा नहीं पाते, वह प्रशंसा सुनकर अहंकार में चूर-चूर हो जाते है।

मुनिश्री ने उक्त विचार रविवार को श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे धर्मसभा में व्यक्त किए। मुनिश्री ने कहा कि आज हर व्यक्ति प्रशंसा का भूखा है, वैसे देखा जाए तो प्रशंसा जो पचा नहीं पाते, वह प्रशंसा सुनकर अहंकार में चूर-चूर हो जाते है। दूसरा संदेश है लोभ, लालच से अपनी रक्षा करो। लोभ, लालच में आकर व्यक्ति क्या-क्या नहीं करता, पद का लोभ, धन का लोभ आदि अनेको लोभ है जिनके कारण व्यक्ति का जीवन बर्बाद हो जाता है।

चला जग में सिकन्दर जब, साथ में हाली बहाली थे। रखी थी सामने दौलत, मगर दो हाथ खाली थे। मुनिश्री ने कहा कि परमात्मा के साथ अगाध भक्ति के द्वारा एक मेक होने पर भी भवंत की आत्मा भी परमात्मा स्वरूप अनुभूति होने लगता है अर्थात् उसकी आत्मा भी परमात्मा स्वरूप हो जाती है।

नदी के स्वच्छ, शीतल जल में डुबकी लगाने पर जो शरीर का संताप दूर होगा, नदी के किनारे पर बैठने से ही शीतलता प्राप्त होने लगती है उसी प्रकार हमारी आत्मा परमात्मा जब बनेगी तब बनेगी लेकिन परमात्मा के सम्मुख बैठने से परमात्मा को प्राप्त अनंत शाश्वत सुख की अनुभूति पहले ही हो जाती है।

किसी के प्रति बुरा विचार लाना भी धर्मग्रंथ में हिंसा है।

मुनिश्री ने अपने प्रवचनों मे कहा की मन में जो दूसरों के प्रति अच्छे भाव रखता है वह हमेशा कर्म भी अच्छे ही करता है। सभी से अच्छा बोलोगे तो मन प्रसन्न रहेगा। नकारात्मक सोच होने पर मानव हमेशा पाप कर्म की तरफ ही बढ़ता है। दूसरों को ज्ञान की बातें कहना बहुत अच्छा लगता है।

दूसरों को ज्ञान बांटने से पहले विचार करें कि हम उसका कितना पालन कर रहे हैं। खुद पालन नहीं करते तो ज्ञान बांटना व्यर्थ है। मानव को अपने पुण्य कर्म से धन मिल रहा है तो उसे खर्च करने का भाव भी रखें। मानव को अपना जीवन ऐसा जीना चाहिए कि दूसरे उसका अनुसरण करें। मानव मन के भाव से जीवन बनाता है। दूसरे के प्रति हमेशा सकारात्मक सोच रखें। मानव को जीवन ऐसा जीना चाहिए की दूसरों के लिए आदर्श बन जाए। किसी के प्रति बुरा विचार लाना भी धर्मग्रंथ में हिंसा है।

‘मन के मालिक बनो, दास नहीं’

मानव को मन के इशारों पर कभी नहीं चलना चाहिए। ज्ञान, चरित्र, संयम, दया, अहिंसा पांच बातों का हमेशा ध्यान रखें। मन के मालिक बनें, दास नहीं। मानव आज ऐसी बातों में उलझा रहता है जिसका जीवन से कोई लेना-देना नहीं रहता है। जीवन में कर्म प्रधान बनें। कर्म बुरे होने पर ज्ञानी का अंत बुरा होता है। दूसरों के अवगुण की नापतौल करने के बजाय खुद को सुधारो।

‘मन को बदलोगे तो परिस्थितिया अपने आप बदलेगी’

मानव स्वभाव से ही खुद के लिए दु:ख व परेशानी बढ़ाता है। मन को बदलने से मानव की परिस्थिति खुद-ब-खुद बदल जाएगी।अपने अवगुण को कभी छिपाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। संत और साध्वी गृहस्थ को लेकर सदकार्य करने की प्रेरणा दे सकते हैं। किसी को मर्यादा की सीख देने से पहले खुद मर्यादा में रहने का प्रयास करें। तप और तपस्या परमात्मा को पाने का मार्ग है, मंजिल नहीं। मन पवित्र होगा तो ही मंजिल मिलेगी।

अध्यक्ष नेमिचन्द जैन , मंत्री पवन जैन , ओम प्रकाश जैन , आशीष जैन ने बताया की सोमवार को जैन नसियां ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ क्षेत्र में प्रात: 7:45 बजे मुनिश्री के प्रवचन, 10 बजे मुनिश्री की आहारचर्या, 12 बजे सामायिक व सायं 5:30 बजे महाआरती एवं जिज्ञासा समाधान का कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा।

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