महिला दिवस या सहानुभूति…

liyaquat Ali
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अमन ठठेरा की कलम सें

इस पुरूष प्रधान समाज में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए कई वर्षों बीत चुके हैं। लेकिन आज तक समाज ने महसूस नहीं होने दिया कि महिलाओं की प्रतिष्ठा इस समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। आज भी यही सुनने को मिलता हैं कि तू एक नारी हैं मानो आज भी पुरूष प्रधान समाज में भी पुरूषों का रोब ऐसा दिखाई पड़ता जैसे आज भी नारी को कम आंका जा रहा हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस नहीं हैं यह सिर्फ महिलाओं के प्रति सहानुभूति दिवस हैं। जो लोग कईं माध्यमों से प्रकट करते हैं।

आज समाज की विचारधारा से प्रकट होता हैं कि महिला का होना ही उसके लिए एक अभिशाप बन गया हैं। महिला हो या लड़की उसका खुबसूरत होना भी अभिशाप हैं। जब उसके ऊपर सिर्फ किसी रिश्ते को नकारने पर तेजाब फेक दिया जाता हैं , उसके द्वारा छोटे कपड़े पहनना भी अभिशाप हैं जब समाज द्वारा उस लड़की या महिला को बदचलन या वैश्या जैसे नामों से पुकारा जाता हैं ।

यहा तक महिला / लडकी का अच्छा होना भी एक बुराई बन ही जाती हैं जब उसके साथ बलात्कार कर दिया जाता हैं। क्या वाकई इस समाज में महिला दिवस का अस्तित्व है ? आज भारत जैसे सबसे बडे लोकतांत्रिक देश कि बात करें तो एनसीआरबी रिपोर्ट बताती हैं कि पिछले पाँच साल में 1500 महिलाओं पर एसिड हमले हुए हैं। वही बात करें बलात्कार कि तो 2018 कि एनसीआरबी रिपोर्ट बताती हैं औसतन एक दिन में 91 बलात्कार हुए हैं। आज गांवो की बात करें तो महिलाओं कि स्थिति ओर भी शोचनीय हैं।

गांवो में तो महिलाओ के साथ मारपीट तक की जाती हैं। यहा तो लड़की का पैदा एक अभिशाप बन जाता जब माँ के पेट में ही लड़की को मार दिया जाता या फिल जन्म देने के बाद उसे किसी नाले में फैक दिया जाता और कारण सिर्फ एक हैं कि वह लडकी है जो वंश आगे नही बढा सकती वंश को तो लड़का ही आगे बढाता हैं लड़कियाँ नहीं, अब इस समाज ने कौनसा ज्ञान प्राप्त किया जिसमें यह भी नहीं बताया कि अगर स्त्री नहीं होगी तो बच्चे का जन्म कहा होगा।

स्त्री ही तो है जो मां, बहन, पत्नी का दायित्व निभाती है । मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होगा कि यह महिला दिवस सिर्फ नाममात्र का और महिलाओ के प्रति केवल सहानुभूति का दिन हैं। अगर वाकई महिला दिवस मनाना हैं तो इस समाज को महिला के प्रति विचाधारा में परिवर्तन की सख्त आवश्कता हैं।

समाज को यह समझना होगा कि कोई भी लड़की द्वारा छोटे कपडों पहनने पर वह बदचलन या वैश्या नहीं होती। एनएसएसओ (NSSO) की रिपोर्ट के मुताबिक आज केवल किसी भी सेक्टर में 4 प्रतिशत ही महिलाओं की हिस्सेदारी हैं। क्या यह वाकई महिला दिवस हैं ? इस समाज में महिला को एक खाना बनाने के लिए गृहणी या फिर मुझे यह कहने में कोई अतिश्योति नहीं होगी महिला का स्थर (दर्जा) सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन के अनुरूप हो गया।

यहा तक लड़की के माता पिता द्वारा भी छोटे कपड़े पर रोक लगाना , बाहर अकेले नहीं भेजना, सहित कई बंदिशे लगाना मानो ऐसा लगता हैं लड़की को कमजोर बनाने का आधा काम तो माता पिता ही कर रहें। अगर आज वाकई महिला दिवस को मनाना हैं तो समाज में महिला का स्थर ऊंचा उठाना होगा।

किसी महिला या लड़की को उसके कपड़े के कारण उस लड़की का आकलन नहीं किया जा सकता हैं। इस समाज को महिला और लड़कियों के प्रति अपनी छोटी सोच को त्याग करना होगा ।

तभी वास्तव महिला दिवस का अस्तित्व हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कल महिला दिवस पर सभी नारी को यह संकल्प लेना होगा कि वह अब इस समाज का अत्याचार नहीं सहेगी और पुरूषों को अपनी विचारधारा में परिवर्तन करना होगा । तभी इस दिवस को सही सार्थकता होगी और पुरूष प्रधान समाज को जबाव होगा ।

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