राजस्थान में राजनीतिक नियुक्तियों के नाम पर कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री गहलोत द्वारा लम्बे समय तक तड़फाने से कांग्रेस कमजोर जा रही है

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File Photo Ashok Gehlot

जयपुर/अशफाक कायमखानी।  राजस्थान मे कांग्रेस के सत्ता मे आने पर दिल्ली हाईकमान से जोड़तोड़ करके मुख्यमंत्री का पद पाने मे अशोक गहलोत तीसरी दफा सफल होने के साथ मुख्यमंत्री रहते सरकार भी ढंग से चलाने की छवि बनाने मे कामयाब रहने के बावजूद उनके मुख्यमंत्री रहते होने वाले आम विधानसभा चुनावों मे कांग्रेस के ओंधे मुंह गिरने के कारणों पर कांग्रेस पार्टी को कम से कम मंथन जरूर करना चाहिए।

अन्यथा जो परिणाम पहले आये उनसे बूरे आगे भी आ सकते है। अपने चहते सेवानिवृत्त ब्यूरोक्रेट्स व कुछ नजदिकीयो को संवैधानिक व अन्य पदो पर समय रहते नियुक्ति देकर सत्ता मे हिस्सेदारी देना भूलते नही उनके मुकाबले लम्बे समय आम कांग्रेस नेता व कार्यकर्ताओं को जिला व प्रदेश स्तरीय राजनीतिक नियुक्तियों से दूर रखने से उनके उदासीन हो जाना भी अगले चुनाव मे कांग्रेस का बूरी तरह हारने की बनती सम्भावना का प्रमुख कारण माना जा रहा है।

राजनीति मे लगे आम लोग साधू-संत तो होते नही है। वो भी राजनीति मे आकर सत्ता का स्वाद चखते हुये अपने अपने स्तर पर सत्ता मे हिस्सेदारी की चाहत रखना चाहते है। जब नेता तो मुख्यमंत्री बनकर सत्ता का सूख स्वयंं ओर अपने कुछ लोगो तक सिमीत करले तो फिर उन कार्यकर्ताओं के संजोये सपने चकनाचूर होते है तो वो उदासीन होकर मतदान को प्रभावित करता है।

जिसके चलते कांग्रेस चुनावों मे कभी 156 से 56 सीट पर तो कभी मात्र 21-सीट पर आकर सिमट जाती है। 1998 मे अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने आपको सेफ रखने के लिए सभी विधायकों को अपने अपने क्षेत्र का बादशाह बनाकर उन्हें मनचाही बादशाहत चलाने की छूट देने के साथ आम कार्यकर्ता को सत्ता मे हिस्सेदारी देने या सरकार आने का अहसास तक नही होने के परिणाम विपरीत ही आये है।

इलाके का कांग्रेस विधायक या विधानसभा उम्मीदवार की मंशा के बीना क्षेत्र मे पत्ता तक नही हिलता है। पटवारी से लेकर तहसीलदार, सिपाही से लेकर थानेदार व डिप्टी, बाबू से लेकर उपखण्ड अधिकारी एक तरह से विधायक बनजाता है।

विधायक के कुछेक जीहुजूरे लोगो को छोड़कर बाकी कांग्रेस कार्यकर्ता व नेता सिर पटक के मर जाये वो सत्ता मे अपने स्तर पर किसी भी तरह की चुनावी टिकट व जनहित का काम करवा नही सकते। पांच साल पहले जो भागदौड़ करके विपक्ष मे रहकर आंदोलन करके लाठियां खाकर कार्यकर्ता सरकार बनाकर आया वो फिर सरकार व विधायक की उपेक्षा के चलते उदासीन होकर अपने विधायक को पटकनी देने का हर मुमकिन प्रयास करने लगता है।

विधायक अपनी बादशाहत के कारण अपने से मतभेद रखने वाले कार्यकर्ताओं को कुचलने की भरसक कोशिश करते है। जिसके चलते नाराज कार्यकर्ता उसे हराने के लिये राजनीतिक जहर पीने को तैयार हो जाता है। 17-दिसम्बर को वर्तमान गहलोत सरकार को गठित हुये तीन साल पूरे होकर चोथी साल मे प्रवेश करने पर भी बोर्ड-निगमों का गठन नही करने पर माननीय न्यायालय ने सरकार को गठन करने पर जवाब मांगा तो सरकार ने जवाब दिया है कि फरवरी-22 के अंत तक गठन करेंगे।

फरवरी-22 का समय सोचसमझ कर दिया बताते है। तब तक यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव चल रहे होगे। केंद्र का बजट सत्र शुरू हो जायेगा। राज्य का बजट सत्र आने वाला होगा। न्यायालय मे फिर आगे की डेट का हवाला दे दिया जायेगा। इसी बीच कुछ करना पड़ा तो चुपके से अपने दो चार खास ब्यूरोक्रेट्स को एडजस्ट कर दिया जायेगा। तब तक कांग्रेस की राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय राजनीति मे काफी कुछ बदला बदला भी नजर आने लगेगा। काफी तस्वीरे साफ होती नजर आयेंगी।

कुल मिलाकर यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं तो सत्ता का शीर्ष पद पाकर सत्ता का स्वाद जखने के लिये हर तरह के प्रयत्न करते है। शीर्ष पद मुख्यमंत्री बनकर आम कार्यकर्ताओं व नेताओं को सत्ता मे हिस्सेदारी देने मे इतनी देरी करते है जो मिलना भी नही मिलने के समान होता है।यानि देर से न्याय मिलना भी अन्याय समान होता है। बोर्ड-निगम गठन को लेकर वर्तमान गहलोत सरकार ने फरवरी-22 के अंतिम मे करने का कोर्ट को बताया है।

लेकिन तबतक पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव व केंद्रीय व राज्य बजट सत्र की हलचल से काफी कुछ बदला बदला नजर आयेगा। देखते है कि बोर्ड-निगमो का गठन मुख्यमंत्री गहलोत करते है या फिर कोई ओर करते है। अगर गहलोत करते है तो वो कबतक करते है।

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