Jaipur । चांदपोल दरवाजे से जयपुर नगर में प्रवेश करने पर बांये हाथ को पहला रास्ता “बालानन्दजी का रास्ता” कहलाता है । इसी रास्ते के आखिर में उत्तरी पश्चिम कोण पर नाहरगढ़ के पहाड़ से जुडे बालानन्दजी का गढ़नुमा विशाल मठ-मन्दिर है । बालानन्दजी का मठ ऐसी ऊंचाई पर बना है कि इसके झरोखों और छत से जयपुर नगर का दृश्य आंखों के नीचे आ जाता है ।
‘श्री लश्करी वंश की गद्दी सम्वत् 1600 से जयपुर में मानी जाती है ।’ किन्तु ‘महाराज श्री 1008 श्री श्री ब्रजानन्द जी आचार्य प्रवर महाराजा सर सवाई जयसिंह के अधिक प्रार्थना करने पर गद्दी को जयपुर में स्थाई बनाकर रहने का निश्चय किया । किन्तु ब्रजानन्दजी जयपुर में विशेष न रहकर गोवर्धन पर्वत पर श्री साकेत बिहारी जी के चरण शरण हो गये । इनके पश्चात् श्री श्री 1008 श्री बालानन्द जी महाराज गद्यारूढ़ हुये । बालानन्द जी का स्थान इनके ही नाम से प्रसिद्ध है यह गद्दी सैन्य गद्दी के रूप में भी विख्यात है ।
बालानन्दजी के चमत्कारी स्वरूप के कारण ही बादशाह औरंगजेब ने इनको यात्रा के समय लश्कर एवं ढोल की ध्वनि के साथ विचरण करने के सम्बन्ध में एक फरमान जारी किया था, जो इस बात का द्योतक है कि औरंगज़ेब जैसा कट्टर मुगल शासक भी इनसे कितना प्रभावित था ।
बालानन्दजी का मठ जयपुर में पुरानी बस्ती की विशाल एवं ऐतिहासिक इमारत है । इसके आकार-प्रकार एवं बनावट के अनुसार यह मन्दिर-मठ कम, किसी गढ़ या किला अधिक होने का आभास देता है । यह एक छोटी पहाड़ी की ऊँची टेकरी पर बना है । पत्थरों से बने खुर्रे को पार करते ही पहला दरवाजा आता है और उसके बाद विशाल चौक ।
इस चौक में पहुंचने पर एक और बड़ा द्वार और फिर किलेनुमा महल बना है, यहाँ तक पहुंचने पर चढ़ाई चढ़ती 25-30 सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती है । इस विशाल पोल में घुसते ही दोनों तरफ छोटी-छोटी कोठरियां बनी हुई है । इनको पार करते ही एक दूसरा चौक आता है । इसके दायीं ओर सीढ़ियों की ऊँची उठान तय करने पर एक ओर प्रवेश-द्वार, चौक उसके बायीं ओर बने कक्षों को पार करने के बाद चौक में पूर्व में देखते बरामदे में तीन कक्ष हैं ।
यह मन्दिर के बराबर-बराबर तीन गर्भ-गृह हैं जिनमें भगवान् राम के तीन रूपों के विग्रह प्रतिष्ठापित हैं । इस प्रकार एक काफी ऊँची पीठिका पर दूसरी मंजिल में इन विग्रहों के दर्शन होते हैं । नगर की ओर आगे के हिस्से में बडे दालान बने हैं जिनमें झरोखे भी हैं – किसी गढ़ हवेली के समान ।
इस मन्दिर के प्रधान परिसर में विग्रहों के सामने एक छत का चौक है जिसमें बीचों-बीच ‘यज्ञ कुण्ड़’ बना हुआ है । मन्दिर के पीछे ‘विशाल सरस्वती कुण्ड़’ है, कहते हैं प्रारम्भ में जयपुर नगर के लिए यहीं विशाल जल केन्द्र था, जहाँ से नगर के लिए जल वितरण किया जाता था । इस अति विशाल कुण्ड़ के चारों ओर की ऊँची दीवारों में ढांणे और हौज बनवाए थे और उनका सम्बन्ध शहर में जाने वाली मोरी या नालियों से जोड़ा गया था ।
आज यहाँ पर सरकारी स्कूल चलता है ।
मठ के पृष्ठभाग में नगर की प्राचीर अथवा परकोटा आ जाता है । परकोटे से बाहर निकलने की प्राचीन मोरी बनी है जिसे बालानन्दजी की मोरी कहते हैं । कहा जाता है कि रियासतकालीन समय में जब नगर के सात मुख्य दरवाजे रात्रि में सुरक्षा हेतु बंद कर दिये जाते थे, तब इन्हीं मोरियों के माध्यम से ही नगर में आ-जा सकते थे ।
बालानन्दजी के इस मठ-मन्दिर के सम्बन्ध में जयपुर नगर का इतिहास में ए. के. राय ने जो कुछ लिखा उसका सार यह है कि बालानन्दी रामानन्दी वैष्णवों की ही एक शाखा है । ए. के. राय के अनुसार आज के इस मठ-मन्दिर के स्थान पर पहले राधा-विनोदीलाल का एक छोटा मन्दिर था, किन्तु इस स्थान का पट्टा जयपुर के संस्थापक नरेश महाराजा सवाई जयसिंह ने बालानन्दजी को आवंटित किए जाने के बाद मन्दिर को वह रूप मिला, जो आज है ।