जयपुर
प्रदेश में चुनावी रणनीति और आक्रामक प्रचार के बाद भी भाजपा दुबारा सत्ता पर काबिज नहीं हो पाई। पिछले चुनाव में मोदी लहर के दम पर 163 सीटों के भारी बहुमत से आई भाजपा बीते पांच वर्षों में अपनी बड़ी जीत को कायम नहीं रख पाई। पांचवां व अंतिम साल शुरू होते ही उप-चुनावों में करारी हार के बाद भी पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया और इसका खामियाजा करीब 90 सीटों के नुकसान से उठाना पड़ा है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने इन चुनावों में प्रभावी रणनीति बनाई थी। यही कारण रहा कि हार के बावजूद प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल रही है। केन्द्रीय नेताओं के दौरों के कारण भाजपा ने कई सीटों पर चुनाव परिणाम भी बदल दिए हैं लेकिन जनता का रुख भांपने में नाकाम रही। इसके कारण अब भाजपा को 73 सीटों पर ही संतोष करना पड रहा है।
सरकार के प्रति नाराजगी दूर करने का पर्याप्त समय था लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इसके लिए कोई कार्रवाई नहीं कर पाया। उप-चुनावों में ही हवा के बदलते रुख की जानकारी मिल गई थी। हालांकि प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी को पद से हटाकर जनमानस का मन बदलने का प्रयास किया किन्तु प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर हुए विवाद के कारण प्रदेश नेताओं के सामने पार्टी आलाकमान का कद भी छोटा लगने लगा।
इसके अलावा भी हार के कई कारण रहे। इसमें सरकार की कार्यशैली के प्रति जनता में नाराजगी और परम्परागत वोट बैंक का भाजपा से दूर होना प्रमुख कारण रहा। भाजपा के परम्परागत वोट बैंक राजपूत समाज से सरकार की दूरी कई मौकों पर सामने आई और राजपूत समाज ने भाजपा के विरोध का खुला ऐलान भी कर दिया। इसके बावजूद राजपूत नेताओं को मनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। वहीं जीएसटी तथा नोटबंदी के कारण वैश्य वर्ग में भी नाराजगी रही।
सरकार में शीर्ष पदों पर बैठे लोग अपने खास लोगों की ही बात मानते रहे तथा आमजन से उनका सीधा जुडाव नहीं रह पाया। साथ ही पार्टी कार्यकर्ता और पदाधिकारियों से दूरी बनाए रखी। मंत्रियों से ज्यादा अधिकारियों को तवज्जो मिली।
पार्टी हार का एक और कारण बगावत और भीतरघात रहा। टिकट वितरणमें खामी के कारण कई मंत्री और विधायक बागी हो गए और उन्होंने भाजपा के ही वोट बैंक में सेंध लगाई। टिकट वितरण में रणनीति और स्थानीय समीकरणों से ज्यादा अपने पसंदीदा लोगों को टिकट दिए गए। इसके कारण पार्टी को भीतरघात का सामना भी करना पड़ा।