भीलवाड़ा / चेतन ठठेरा । राजस्थान विभिन्न सांस्कृतिक और परंपराओं का प्रदेश है इसलिए इसे रंगीलो राजस्थान भी कहा जाता है । इसी परंपरा की कडी मे प्रदेश का एक ऐसा शहर है जहां रियासत काल से 421 सालो से लगातार शीतला सप्तमी को उस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है। क्या है वह परंपरा, कैसे निभाई जा रही है वह परंपरा, क्या होता है पंरपरा मे आइए विस्तार से जानने के लिए पढे पूरी खबर ।।
तत्कालीन महाराणा मेवाड़ गवर्नमेंट ने विक्रम संवत 1655 में भीलवाड़ा की जागीरी/ पट्टा ठिकाणा भीलवाड़ा भोमियों का रावला के ठाकुर साहब को प्रदान किया था जिसका ताम्रपत्र आज भी रावला ठाकुर के पास मौजूद है । इस प्रकार से भीलवाड़ा गांव के निर्माण/अस्तित्व में आने के लगभग तीन चार वर्ष पश्चात से ही लगातार भीलवाड़ा में शीतला सप्तमी/ अष्टमी को एक अद्भुत परंपरा का निर्वहन किया जाता रहा है । इस प्रकार से इस परंपरा का निर्वहन लगभग 421 वर्षों से अनवरत हो रहा है ।
मेवाड रियासत से चल रही परंपरा के तहत शीतला सप्तमी की पूर्व संध्या पर सर्राफा बाजार में दो स्थानों पर तथा बड़े मंदिर के पीछे बाहले में भैरवनाथ जी की स्थापना की जाती है । इस दिन शाम होते ही पुराने भीलवाड़ा के पंच पटेलो द्वारा भैरवनाथ जी के स्थानों पर धूप अगरबत्ती किया जाता है और ढोल झालर तथा गीतो के संग रात्रि जागरण का आयोजन किया जाता है । इस दौरान भैरवनाथ का भाव भी आता है। वर्तमान में भोपा जी का किरदार अंतर्राष्ट्रीय कलाकार और हाल ही मे भारत सरकार से पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किए गए जानकीलाल भांड निभाते है और सहयोगी के रूप मे हुजूरिए का किरदार लालचंद भरावा द्वारा निर्वहन किया जा रहा है ।
शीतला अप्तमी को प्रातः बड़े मंदिर पर भीलवाड़ा गांव की पंचायती हताई पर पंच पटेल इकट्ठे होते हैं । सभी लोग एकत्रित होकर ढोल नगाड़े के साथ झंडा लेकर बड़े मंदिर से निकलते हुए चित्तौड़ वालों की हवेली के यहां पहुंचते हैं । यहां पर लगभग एक घंटे तक होली खेली जाती है । यहीं पर एक व्यक्ति को मुर्दा बनाकर अंतिम यात्रा की शैय्या पर लेटाकर ऊंट , ढोल नगाड़ों के साथ अंतिम यात्रा प्रारंभ होती है जिसे डोल भी कहते हैं जो कि जूलूस के रुप में भीलवाड़ा के मेन मार्केट , बाजारों से रेलवे स्टेशन , पुलिस कंट्रोल रूम, सदर बाजार, गोल प्याऊ चौराया , महाराणा टॉकीज , हिंदू महासभा कार्यालय , सर्राफा बाजार होते हुए बड़े मंदिर पहुंचती है। यहां पर बचला बसा की प्रक्रिया सम्पन्न करने के पश्चात बाहले में अंतिम संस्कार किया जाता है । अंतिम यात्रा में सभी लोग हंसी ठिठोली करते हुए आते हैं एवं मरने वाले पर विलाप करते हैं तथा रोते हैं ।
इस परंपरा के तहत 31 मार्च की रात्रि को 7:15 बजे से जागरण होगा जो मध्यरात तक चलेगा और दूसरे दिन अर्थात 1 अप्रैल को सवेरे10.15 बजे से अंतिम यात्रा शुरू होगी तथा दोपहर में.15 बजे अंतिम संस्कार व मुखाग्नि की रस्म के साथ ही समापन होगा।

विदित है कि संपूर्ण भीलवाड़ा इस पूरे घटनाक्रम को बड़े उत्साह के साथ देखता है एवं संपन्न करवाता है । उपरोक्त परंपरा का भीलवाड़ा के ठाकुर साहब गोविंद सिंह भीलवाड़ा, ठा.सा. घनश्याम सिंह भीलवाड़ा, ठा.सा. चन्द्रभान सिंह मुसी,लादूलाल कसारा, कैलाश जीनगर,तुलसीराम लोहार, लादूलाल भांड , राहुल जीनगर , यशोवर्धन सेन, पूनमचंद जैन ,गोपाल कसारा, रामगोपाल सोनी ,शिव लाहोटी, जगदीश लाहोटी ,अरुण चोटिया, अंकुश जायसवाल किरण सालवी,लक्ष्मण कसारा, अर्जुन कसारा, चुनीलाल कसारा , पप्पू पाटोदिया,भानू बैरवा, भेरूलाल सेन, दिनेश छीपा, दिनेश सालवी आदि पुराने भीलवाड़ा के पंच पटेलों ने भीलवाड़ा के सभी समाज बंधुओं से इस परंपरा को 1 अप्रैल सोमवार को विधिवत एवं सद्भावना से संपन्न कराने का आव्हान किया है ।