वास्तुविद्ध – बाबूलाल शास्त्री साहू
मानव का स्वभाव उसका प्राकृतिक गुण हैं, अतः मानव का स्वाभाविक गुण या प्रतिभा कैसे प्रकट हो विकास कैसे हो, इसके लिये प्रथम आवश्यक है कि वह ऐसे वातावरण परिवेश व ऐसी जगह रहें जो उसकी स्वाभाविक प्रवृति या गुणों के अनुरूप हो ताकि उसमें सहज गुण प्रकट हो सके एवं विकास कर सकें उसके कार्य में रूकावट नहीं हो एवं प्रकृति उसे पुरा पुरा सहयोग दे सके, क्योकि हर व्यक्ति का शरीर ऊर्जा का केन्द्र होता है, एवं वह जहाॅ भी रहता हैं, जहाॅ भी जाता हैं, वहा के निवासीयों की भवन, वस्तुओं की अपनी ऊर्जा होती हैं, यदि उस स्थान/निवास की ऊर्जा उस व्यक्ति के शरीर की ऊर्जा से ज्यादा सतुंलित हो तो उस स्थान से विकास होता हैं शरीर से स्वस्थ्य रहता हैं, सही निर्णय लेने की क्षमता सोचा हुआ कार्य पूर्ण करने की क्षमता रखता है,लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करने में उत्साह बढ़ता है, धन की प्राप्ति होती है जिससे समृद्वि होती हैं। किन्तु वास्तु दोष होने एवं उस स्थान की ऊर्जा सतुलित नही होने से अत्यधिक मेहनत करने पर भी सफलता नही मिलती एंव अनेक व्याधियो व रोगो का षिकार होना पडता है, अपयष व हानि उठानी पडती है। वास्तु सही रूप से जीवन जीने की एक कला है व जन्म होने के बाद कार्य स्थल है । अतः व्यक्ति वास्तु शास्त्रीय नियमो के अनुसार निर्माण करें, निवास करे तो बाधा रहित सफलता प्राप्त की जा सकती है। क्योकि वास्तु शास्त्र एक विशाल प्राचीन वैज्ञानिक जीवन शैली है। वास्तु विज्ञान सम्मत तो है ही साथ ही वास्तु का सम्बध ग्रह नक्षत्रो एंव धर्म से होता है। ग्रहो के अशुभ होने एंव वास्तु दोष होने पर मानव को भंयकर परिणाम भुगतने पडते है। वास्तु शास्त्र अनुसार पंच तत्वो पृथ्वी जल अग्नि वायु एंव आकाश तथा वास्तु के विभिन्न अंग नेऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम भाग) ईशान कोण (उत्तर पूर्वी भाग) अग्नि कोण (दक्षिण पूर्वी भाग ) वायव्य कोण (उत्तर पश्चिम भाग) एंव बहा्र स्थान केन्द्र को सतुलित करना आवश्यक है। जिससे जीवन सुखमय रहे एंव आने वाले भी खुशी अनुभव करें।
वास्तु दोष होने पर ग्रह स्वामी
वास्तु दोष होने पर ग्रह स्वामी उसके निवासियो परिवार के सदस्यो को विभिन्न प्रकार के रोग आर्थीक हानि व मानसिक परेशानियो का सामना करना पडता है। भवन के दक्षिण पश्चिम भाग नेऋत्य कोण का सम्बन्ध पृथ्वी तत्व से होता है अतः इसे ज्यादा खुला रखना अशुभ है। क्योकि अन्य स्थानो की तुलना मे हल्का या खुला होने से उसके निवासियो को अनेक प्रकार की शारीरिक एंव मानसीक व्याधियो का शिकार होना पडता है। परिवार मे तनाव निराशा एंव क्रोध पैदा होता है। दक्षिण पश्चिम का भाग अन्य भागो से कटा हुआ होने से निवास करने वालो को मधुमेह चिन्तन अति चेष्टा अति जागरूकता जैसी व्याधिया हो सकती है। यदि दक्षिण का भाग बढा हुआ एंव निचा हो तो निवास करने वाली स्त्रियो के मानसीक स्वास्थ्य पर विपरित प्रभाव पडता है। यदि दक्षिण की अपेक्षा पश्चिम भाग अधिक बढा हुआ एंव निचा हो तो निवास करने वाले पुरूषो के मानसीक स्वास्थ्य पर विपरित प्रभाव पडता है। अतः वास्तु शास्त्र अनुसार दक्षिण पश्चिम कोने को न छोटा करे न बढा करे एंव न ही खुला रखे बल्कि इस स्थान को भारी रखे एंव अन्य कोण से इसे उचां रखे।
ग्रह आवास के उत्तर पश्चिम भाग वायव्य कोण का सम्बन्ध
ग्रह आवास के उत्तर पश्चिम भाग वायव्य कोण का सम्बन्ध वायु तत्व से होता है। वायु का प्राण से सिधा सम्बध है अतः इस स्थान को खुला रखना शुभ है इस स्थान पर भारी सामान नही रखना चाहिये एंव न ही भारी निर्माण कराना चाहिये अन्यथा वायु विकार तथा मानसिक रोगो की सम्भावना रहती है। इसके धरातल का उत्तर पूर्व की अपेक्षा थोडा उॅचा तथा दक्षिण पश्चिम से कुछ निचा होना शुभ है। उत्तर का स्थान अधिक बडा होने से परिवार की स्त्रियो को त्वचा सम्बधी रोग एक्जिमा एलर्जी आदि होने का भय रहता है। उत्तर की अपेक्षा पश्चिम का स्थान अधिक बडा होने से पुरूषो को शारीरिक व्याधिया होने की सम्भावना रहती है। भवन के उत्तर पूर्वी भाग ईशान कोण का सम्बध जल तत्व से है। यह स्थान ज्यादा भारी होने से भवन के निवासियो के शरीर मे जल तत्व का सन्तुलन बिगड जाता है। एंव अनेक प्रकार की व्याधिया होती है। अतः उत्तर पूर्व भाग को जितना हल्का एंव खुला रखे उतना शुभ है इस स्थान पर रसोई निर्माण नही करना चाहिये अन्यथा उदर जनित रोगो की बिमारिया एंव परिवार के सदस्यो मे तनाव की सम्भावना रहती है। इस स्थान पर भुमिगत जल भंडारण हो या घर मे होने वाली जल पूर्ति की पाइप लाईन इसी दिशा मे हो तो शुभ है यदि परिवार मे कोई सदस्य बिमार होतो उसे ईशान कोण की ओर मुह करके औषधि का सेवन कराने से जल्दि ठीक होता है।
स्त्रियो को योन रोग
भवन का ईशान कोण कटा हुआ नही होना चाहिये वरना रहने वालो का रक्त विकार से ग्रसित होना पडता है। स्त्रियो को योन रोग भी हो सकता है। प्रजनन क्षमता को भी दुष्प्रभावित करता है। ईशान कोण मे यदि उत्तर भाग उचा हो तो उस परिवार की स्त्रियो के स्वास्थय पर बुरा असर पडता है ईशान के पूर्व का स्थान उचा होने पर पुरूषो के स्वास्थ्य पर बुरा असर पडता है। भवन के पूर्वी दक्षिण भाग अग्निकोण का सम्बन्ध अग्नि तत्व से होता है। इस स्थान पर रसोई निर्माण कर पकवान बनाना शुभ है। किन्तु जल स्त्रोत या जल भंडारण करने से उदर रोग आत्र सम्बन्धित रोग पित विकार होने की सम्भावना रहती है। दक्षिण पूर्व दिशा मे यदि दक्षिण का स्थान अधिक बढा हुआ हो तो परिवार की स्त्रियो को शारीरिक मानसिक कष्ट होते है। दक्षिण के स्थान की अपेक्षा पूर्व का स्थान बढा हुआ हो तो परिवार के पुरूषो को शारीरिक व मानसिक परेशानियो का सामना करना पडता है। वास्तु शास्त्र अनुसार भवन के मध्य केन्द्र स्थान को बह्रम स्थान को अति महत्वपूर्ण माना गया है। जिसका सम्बध आकाश तत्व से होता है। बहं्रम स्थान का वही महत्व है जो मानव के शरीर मे नाभि का होता है। आकाश तत्व से संबधित होने से इसे खुला रखना परिवार के विकास स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है। इस स्थान पर किसी प्रकार की गंदगी होने से परिवार के सदस्यो को स्वास्थ्य सम्बधि परेशानिया होती है। इस स्थान पर शौचालय सिढिया गटर सेप्टिक टैंक आदि का निर्माण करने से अपयश हानि अनेक व्याधिया श्रवण दोष पैदा होते है। विकास मे रूकावट होती है। अतः इस स्थान को खुला रखना आवश्यक है इस स्थान पर तुलसी का पौधा लगाने से अनेक व्याधियो व दोषो से मुक्ति मिलती है।
वास्तुविद्धः-बाबू लाल शास्त्री (साहू)
मनु ज्योतिष एंव वास्तु शोध संस्थान
बडवाली हवेली के सामने सुभाष बाजार टोंक
मो. न. 9413129502, 9261384170