टोंक रत्न बसावन लाल शादां: रियासत काल में नवाब साहब के काबिल मीर मुंशी (चीफ सेक्रेटरी)

liyaquat Ali
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टोंक सुनहरी कोठी

Tonk / सुरेश बुन्देल। नज़ाकत, नफ़ासत, अदब और तहजीब के मामले में शहरे लखनऊ के बाद टोंक का जिक्र लोगों की जुबान पर रहता है। कमजोर इल्म वाले लोगों के लिए हैरत की बात यह है कि टोंक रियासत के पहले नवाब अमीर खां के मीर मुंशी (मुख्य सचिव) के ओहदे पर एक ऐसा शख्स काबिज रहा, जिसके जिम्मे रियासत के तमाम इन्तेजामात थे। ये नज़ीर उन लोगों के लिए ख़ास अहमियत रखती है, जो हिन्दू- मुस्लिम फिरकापरस्ती के हामी हैं।

उन्हें मालूम होना चाहिए कि टोंक में गंगा- जमुनी तहजीब का दरिया रियासत काल से ही बहता आ रहा है। आज भी पड़ौस में रहने वाले हिन्दू- मुस्लिम धर्म के लोग तीर्थ यात्राओं या हज पर जाते वक्त घर की रखवाली का जिम्मा एक- दूसरे पर डालकर जाते हैं। उस शख्श का नाम मुंशी बसावनलाल शादां था, जिन्हें रियासत काल के पहले इतिहासकार होने का एजाज भी हासिल है।

आलिम और फ़ाज़िल मुंशी थे बसावन

131 साल तक टोंक पर नवाबों की हुकूमत कायम रही। तकरीबन 1806 में ही अमीर खां का टोंक पर कब्जा हो गया था। हालांकि वे 15 नवम्बर 1817 में टोंक रियासत के प्रथम नवाब बने और अमीर खां ने अपना ‘मीर मुंशी’ बसावन लाल शादां को ही मुक़र्रर किया। ‘तारीख-ए-टोंक’ के ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक शादां की यौम-ए-पैदाइश लखनऊ के बिलग्राम कस्बे से ताल्लुक रखती है। बताया जाता है कि अदबी माहौल में परवरिश होने की वजह से शादां को कमसिनी में ही नज्म और नसर में महारत हासिल हो गई थी।

इनके मामू राय दाताराम और हिम्मतराय टोंक दरबार में अच्छे ओहदों पर काबिज थे। नवाब के मदारुल महाम (सर्वेसर्वा) होने के बावज़ूद मुंशी जी ने आलिमाना, शायराना और मुंशियाना नसर में अपनी अलग पहचान बनाई। उनके शायराना कलामों की महक आज भी टोंक की रूह में पैबस्त है, जिसे अतीत के दरीचों में झांकने के बाद शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।

मैयारी शायर और अमीरनामा के रचयिता

आलमी शायर के तौर पर मुंशी जी ने नज़्म, ग़ज़ल, कसीदे, मस्नवी, मुसम्मत, कता, रुबाई, मस्तजाद , तरकीब बंद या फर्द के तकरीबन हर पक्ष को अपनी रचनाओं में इस्तेमाल किया, जो खुदबखुद मुंशी जी के कलामों में चार चांद लगा देता था। मंजरकशीं के फन का जादू उनकी नज़्मों में सर चढ़कर बोलता था। फीचरनिगारी और तारीखगोई के मर्म की समझ शादां को स्थापित शायरों की कतार में लाकर खड़ा कर देती है। बतौर लेखक भी शादां को रियासत काल का सफे-अव्वल आलिम माना जाता है। उनकी काबिलियत का मुरीद होकर ही खुद नवाब साहब ने 1822 में शादां को ‘अमीरनामा’ लिखने की जिम्मेदारी सौंपी, जिसे उन्होंने फारसी भाषा में लिखकर अपनी जिम्मेदारी बखूबी से निभाई। उनके कलाम की खूबसूरती महसूस कीजिए-
“या इलाही बशादां कुन, कि बरआयद जेदाम कलकत्ता!
खुशियों की बहार हर तरफ जोश से आई थी और जमाने की मुराद पूरी हो गई थी!
उसके दांतों में मिस्सी और पान का रंग ऐसा लगता था,
जैसे एक साथ बिजली- शाम और शफक निकल आई हों!”

सुरेश बुन्देल- टोंक @कॉपीराइट

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