24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है
देवली/दूनी (हरि शंकर माली)। देवली उपखण्ड के श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘सुदर्शनोदय’ तीर्थ आँवा मे चल रहे चातुर्मास मे आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी महाराज, मुनि श्री 108 महासागर जी, मुनि श्री 108 निष्कम्प सागर, क्षुल्लक श्री 105 गंभीर सागर, क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज ससंग मे मुनि श्री सुधा सागर जी ने अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है।
इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया। जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है।
जैन धर्म का पवित्र और अनादी मंत्र है णमोकार महामंत्र
मुनि श्री सुधा सागर जी ने अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की णमोकार महामंत्र को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, किंतु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन, स्मरण, चिंतन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंत्र है। यह लोकोत्तर मंत्र है। यह मंत्र णमोकार मंत्र बहुत आत्म-सहायक है। आत्म विशुद्धि और मुक्ति के लिए नियमित रूप से णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए।
लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुंचाते हैं, किंतु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए णमोकार मंत्र सर्वकार्य सिद्धिकारक लोकोत्तर मंत्र माना जाता है। णमोकार-स्मरण से अनेक लोगों के रोग, दरिद्रता, भय, विपत्तियां दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएं सुनी जाती हैं।
मन चाहे काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुने हैं। अतः यह निश्चित रूप में माना जा सकता है कि णमोकार मंत्र हमें जीवन की समस्याओं, कठिनाईंयों, चिंताओं, बाधाओं से पार पहुंचाने में सबसे बड़ा आत्म-सहायक है। इसलिए इस मंत्र का नियमित जाप करना बताया गया है।
ये पांच परमेष्ठी हैं। इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध भावपूर्वक किया गया यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने वाला है। संसार में सबसे उत्तम मंगल है।
इस मंत्र के प्रथम पांच पदों में 35 अक्षर और शेष दो पदों में 33 अक्षर हैं। इसतरह कुल 68 अक्षरों का यह महामंत्र समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मंत्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन‘
मुनि श्री सुधा सागर जी ने कहा की आहार को संतों ने, पूर्वाचार्यों ने, तीन भागों में विभाजित किया है। 1. तामसिक भोजन 2. राजसिक भोजन 3. सात्विक भोजन ‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन‘ ‘अच्छा होवे मन तब बन जाओ भगवन‘ आचार्यों के अनुसार सात्विक भोजन बनाने में हिंसा की संभावना नहीं रहती। ये भोजन उदर पूर्ति हेतु इहलोक और परलोक सुधारने के निमित्त तैयार किया जाता है। ऐसे भोजन से विचारों में निर्मलता आती है जो घर, परिवार व सुदृढ़ समाज में शान्ति स्थापित करती है। इसलिए आचार्यों ने तामसिक एवं राजसिक आहार को छोड़कर सात्विक आहार को ग्रहण करना बताया है।
तप एवं व्रत सात्विक भोज तप धर्म की महत्ता सर्वोपरि है। स्वार्थ सिद्धि में पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि ‘‘कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तप‘‘ अर्थात कर्म क्षय के लिये जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं। ‘‘अनशन नाम अशन-त्यागः‘‘ अर्थात भोजन त्याग करने का नाम अनशन तप है। चेतन वृत्तियों को भोजन आदि के विकल्पों से मुक्त करने के लिए अथवा क्षुधा वेदनादि के समय भी साम्यरस में लीन रहकर आत्मिक बल की वृद्धि के लिये अनशन तप किया जाता है। अतः अनशन, तप, मोक्ष मार्ग में सहयोगी है। अर्थात जो पुरूष मन और इन्द्रियो को जीतता है, निरन्तर स्वाध्याय में तत्पर रहता है वह कर्मों की निर्जरा हेतु आहार त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है।
अध्यक्ष नेमिचन्द जैन पवन जैन आशीष जैन श्रवण कोठारी ने बताया की रोजाना धर्मसभा मे देवली जयपुर कोटा टोंक मालपुरा अजमेर ब्यावर किशनगढ़ निवाई उतरप्रदेश मध्यप्रदेश छतिशगढ़ सहित अन्य प्रदेशों से भी सेंकड़ों जैन समाज के लोगों ने प्रवचन में भाग लेकर धार्मिक पुण्य कमा रहे है ।