कांग्रेस की साख पर उठते सवालों के कौन देगा जवाब.. आखिर क्यों हार रही है कांग्रेस

Sameer Ur Rehman
17 Min Read
file photo _ rahul gandhi

2014 का लोकसभा चुनाव देश के लिए काफी महत्वपूर्ण और भारतीय राजनीति में बदलाव का
महत्वपूर्ण मोड़ रहा है। इस चुनाव की सबसे बड़ी बात यह रही कि नरेंद्र मोदी नाम का उदय हुआ और उस उदय के साथ ही कांग्रेस जैसी सबसे बड़ी पार्टी एक दम सिमटकर लोकसभा में मात्र 44 सीटों परआकर ठहर गई। पहली बार ऐसा हुआ कि लोकसभा में किसी पार्टी का प्रतिपक्ष का नेता भी नहीं बनपाया, क्योंकि 543 सदस्यों की लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए भी 51 से ज्यादा सीटें होना जरूरी होता है।

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बात यहां तक ठहर जाती तो भी ठीक था, लेकिन इसके बाद जिस तरह से धीरे-धीरे करके भारतीय जनता पार्टी में अपने आप को आगे बढ़ाना शुरू किया, वैसे ही लोकसभा की करारी हार
से सबक सीखने के बजाय कांग्रेस ने गलतियों पर गलतियां दोहराना शुरू कर दिया। असर यह हुआ कि लगातार 5 साल तक प्रदेशों में भाजपा बढ़ती रही और कांग्रेस घटती रही।

इस घटत बढ़त से कुछ सीखने के बजाय कांग्रेस ने एक के बाद एक गलतियां दौहराई। नतीजा यह रहा कि जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुआ तो जिस कांग्रेस पार्टी को 2014 की गलतियों से सबक लेकर वापसी करने का प्रयास करना चाहिए था,वह कांग्रेस एक बार फिर सिमट कर लोकसभा में मुश्किल से 50 सीटों का आंकड़ा ही पार कर पाई।

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लगातार दो लोकसभा चुनाव में इतनी करारी शिकस्त के बाद होना चाहिए था कि कांग्रेस खुद को संवारे और आमूलचूल परिवर्तनों पर ध्यान दें, लेकिन हुआ बिल्कुल इससे उलट तथा
जिन लोगों को हार के लिए जिम्मेदार ठहरा कर कांग्रेस पार्टी को जवाब मांगना चाहिए था, उनसे जवाबमांगने के बजाय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने ही कार्यसमिति की बैठक में खुद का इस्तीफा दे दिया।

यह वह गलती थी, जिसका खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है। दरअसल और कोई पार्टी
होती तो उसका अध्यक्ष खुद इस्तीफा देने के बजाय पार्टी की शीर्ष संस्था जिसे कि कांग्रेस में
कार्यसमिति कहा जाता है, को भंग करता और नए ऊर्जावान लोगों को स्थान देकर पार्टी में भी ऊर्जा का संचार करता।

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ऐसा करने के बजाय राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और उसके
बाद गांधी परिवार से ही अपनी पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी को कार्यवाहक अध्यक्ष बना दिया। होता यह है कि जब किसी पार्टी का अध्यक्ष इस्तीफा देता है, तो कार्यवाहक या कार्यकारी अध्यक्ष उसे बनाया जाता है, जो अध्यक्ष के स्थान पर तमाम काम कर सके, लेकिन कांग्रेस ने सोनिया गांधी की बीमारी और अवस्था को भी नहीं देखा और उन्हें जिम्मेदारी दे दी।

नतीजा यह रहा कि ना तो सोनिया गांधी पूरे देश में घूम पाई, ना पार्टी कार्यक्रमों में शिरकत कर पाई,ना पार्टी के फैसले कर पाई। ऐसे में पार्टी में बिखराव का दौर शुरू हो गया। इस बिखराव में पार्टी से मूल रूप से जुड़े लोगों के बजाय पार्टी में सीईओ कल्चर हावी होने लगा। मसलन राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन पार्टी के फैसले वही करते रहे।

इतना ही नहीं, उन फैसलों में पार्टी से जुड़े वरिष्ठ नेताओं या कार्यकर्ताओं की राय को महत्व देने की बजाय अंग्रेजीदा या विदेशों में पढ़े कुछ लोगों को महत्व दिया जाता रहा। यह होने के बाद धीरे-धीरे पार्टी राज्यों के चुनाव में सिमटने लगी और अब जब आज पार्टी मात्र 2 राज्यों राजस्थान
और छत्तीसगढ़ में खुद राज कर रही है और महाराष्ट्र और झारखंड में वह सहयोगी पार्टी के तौर पर है
और ताजा ताजा पांच राज्यों में उसे ना सिर्फ करारी शिकस्त मिली है, बल्कि पार्टी महासचिव बनकर पहली बार किसी राज्य की बागडोर संभालने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मात्र ढाई प्रतिशत वोट लेकर 2 विधानसभा सीटों पर सिमट चुकी है।

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इस हार के लिए उन लोगों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए जो कि उन राज्यों में प्रभारी, पर्यवेक्षक, स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष और सदस्य थे या जिन्होंने अपने अनुसार पार्टी को उन राज्यों में चुनाव लड़वाया। इससे भी ज्यादा जिम्मेदार वे परिस्थितियां हैं, जिन परिस्थितियों में चुनाव से पहले इन राज्यों में फैसले लिए गए। मसलन पंजाब में 2017 के विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया और नतीजा यह रहा कि कांग्रेस उस समय 82 सीट लेकर राज्य की सत्ता पर काबिज हुई।

इतना ही नहीं जब लोकसभा चुनाव में पूरे देश में कांग्रेस हार रही थी, तब भी 2019 में इसी पंजाब से अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस की झोली में 9 सीटें डाली थी, जबकि अन्य कांग्रेस की सत्ता वाले राज्य जिनमे राजस्थान में लगातार दूसरी बार कांग्रेस 25 – 0 से तो मध्यप्रदेश में 25 – 1 से लोकसभा चुनाव में सिमट गई।

ऐसे में स्पष्ट था कि कहीं ना कहीं अमरिंदर सिंह प्रभावी है। हालांकि पंजाब के विधायक और मंत्री अमरिंदर सिंह की इस बात से त्रस्त थे कि वे पार्टी के नेताओं से मिलते नहीं है। इस बारे में उनसे कांग्रेस आलाकमान बात कर सकता था, लेकिन इसके बजाय उन्होंने अमरिंदर सिंह को हटाया ही नहीं वरन उन्हें विश्वास में भी नही लिया। इसके बाद मास्टर स्ट्रोक बताकर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया गया।

यह फैसला भी सही माना जा सकता था, लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बना कर, वह भी सुनील जाखड़ की कीमत पर,एक तरह से पार्टी ने अपना पैर कुल्हाड़ी पर ही मार लिया। पंजाब में पिछले 1 साल की राजनीति पर नजर डाली जाए, तो कांग्रेस को डैमेज करने का जितना बड़ा काम अकेले नवजोत सिंह सिद्धू ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर किया, उतना नुकसान
शायद अन्य नेता कहीं भी नहीं करता है।

इतना सब कुछ सामने होते हुए भी कांग्रेस आलाकमान ने उन पर ना तो नकेल कसी, ना उनको रोकने का प्रयास किया। ऐसे में यदि पंजाब की सत्ता हाथ से चली गई है, तो इसमें सबसे बड़ा दोष सिर्फ और सिर्फ पार्टी में फैसले करने वाले राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का ही कहा जा सकता है।

यहां महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन पांच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले जब केरल में विधानसभा चुनाव था,जहां से कि खुद राहुल गांधी सांसद भी हैं। उस राज्य की परंपरा है कि एक बार कांग्रेस नेतृत्व वाली यूडीएफ और एक बार लेफ्ट नेतृत्व वाली एलडीएफ की सरकारें बनती है, लेकिन जब राहुल गांधी के सांसद होते हुए तथा उनकी अगुवाई में उस राज्य में चुनाव होने पर इतिहास बदलता है और जिस राज्य में यूडीएफ की सत्ता आनी चाहिए थी, वहां एलडीएफ इतिहास बदलते हुए लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होती है। अब यहां किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता,क्योंकि जब तमाम फैसले, निर्णय और कैंपेन राहुल गांधी के हाथ में है, तो कोई और दोषी कैसे हो सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात यह कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान गुजरे 8 सालों में उन तमाम
नेताओं को या तो दरकिनार कर दिया गया या पार्टी से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया गया,जो कि
कहीं ना कहीं पार्टी की रीढ़ या स्थापना से जुड़े थे। उस समय कहा गया कि यह सब नेता चूक गए हैं। सिर्फ पुराने नेताओं को ही दरकिनार नहीं किया गया, बल्कि हेमंत बिसवा सरमा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, ललितेश त्रिपाठी ,अशोक तवर ,सुष्मिता देव सहित ऐसे बहुत सारे नाम है,जिन युवाओं को भी परिस्थिति वश इतना मजबूर कर दिया गया कि उन्होंने पार्टी छोड़ना मुनासिब समझा।

अब जो बचे हैं उनमें सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा जैसे युवा नेताओं की स्थिति भी समझी जा सकती है। इन सब के पार्टी छोड़ने पर यह मनन करने की बजाय की आखिर क्या कारण है कि सिर्फ बुजुर्ग ही नहीं युवा भी कांग्रेस से विमुख हो रहे हैं, कहा गया कि यह सब लोग मौकापरस्त है।

नतीजा यह रहा कि इन सब के प्रदेशों में कांग्रेस ऐतिहासिक हार की ओर अग्रसर हुई। एक और मजेदार बात यहां बताना जरूरी है कि जो कांग्रेस लगातार हारती जा रही है और आज अपने अस्तित्व से लड़ाई करने का समय आ गया है, ऐसे समय में बजाए ऊर्जावान लोगों के हाथ में मौका देने से पलट कांग्रेस आलाकमान उन लोगों पर भरोसा जता रहा है,जो खुद अपने क्षेत्रों में नाकारा साबित हुए हैं। मसलन आज देखिए की महत्वपूर्ण प्रदेशों का जिम्मा उन नेताओं को सौंपा है, जो खुद एक से अधिक चुनाव हार चुके हैं।

उदाहरण के लिए रणदीप सिंह सुरजेवाला कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्य के प्रभारी ही नहीं बनाए गए, बल्कि वे कांग्रेस के मीडिया चेयरपर्सन भी लगातार कई सालों से बने हुए हैं,जो कि लगातार विधानसभा के चुनाव हारे हैं। ऐसा ही उदाहरण विवेक बंसल का लीजिए, जो 3 विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद पहले राजस्थान के सह प्रभारी रहे और यहां से हटाया गया तो हरियाणा के प्रभारी बन गए।

अब वह चौथी बार भी विधानसभा चुनाव हार चुके है। देवेंद्र यादव का उदाहरण दीजिए यह दिल्ली
विधानसभा के दो चुनाव लगातार हार चुके हैं, जो पहले राजस्थान के सह प्रभारी रहे और बाद में इन्हें उत्तराखंड जैसे महत्वपूर्ण चुनावी प्रदेश का पूरा प्रभार दिया गया। अजय माकन दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए करारी हार झेलने के बावजूद राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण राज्य के प्रभारी बन गए।

फिर पंजाब की स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष भी बनाए गए। हां यहां अविनाश पांडे का नाम लेना भी
जरूरी है, जो पहले पार्टी के सचिव थे, बाद में महासचिव बनकर राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश के
प्रभारी बने और उनके प्रभारी रहते जो पार्टी 140 सीटें जीतने वाली थी,वह राजस्थान में बहुमत से 1 सीट कम यानी कि 99 सीटों पर सिमट गई।

उन्हें अशोक गहलोत और सचिन पायलट के द्वंद के बाद हटाया तो गया,लेकिन बिहार की स्क्रीनिंग समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। नतीजा जिस बिहार में कांग्रेस में कांग्रेस के 27 विधायक थे,उनकी संख्या ही नहीं घटी, बल्कि जिस आरजेडी की सत्ता बननी चाहिए थी उसकी सहयोगी कांग्रेस होने के कारण आरजेडी को भी सत्ता से हाथ धोना पड़ा, क्योंकि कांग्रेस ने जरूरत से ज्यादा सीटें समझौते में ली और अधिकांश सीटें हार गई।

इतना होने के बावजूद अविनाश पांडे को फिर उत्तराखंड में स्क्रीनिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया और नतीजा सबके सामने है कि जहां उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार सभी की जुबान पर थी, वहां लगातार दूसरी बार भाजपा की सत्ता बन गई।

अब फिर भी अविनाश पांडे से सवाल- जवाब करने के बजाय उन्हें झारखंड में प्रभारी बनाकर भेजा
गया है। यहां पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल की चर्चा भी जरूरी है कि जिनके राज्य केरल में कांग्रेस के गठबंधन में यूडीएफ की सरकार बनी थी और उनके कहे अनुसार लिए गए फैसलों के बाद एलडीएफ दोबारा सत्ता में आई।

उसके बावजूद उनसे जवाब तलब तो नहीं किया गया बल्कि उनके पास आज संगठन की पूरी कमान है। यह मात्र कुछ ही कारण है, जिनके चलते आज पूरे देश में कांग्रेस इस स्थिति में आ चुकी है कि ना सिर्फ पार्टी के अस्तित्व को खतरा नजर आता है और खुद गांधी परिवार पर इतने बड़े प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं कि उनके जवाब देना खुद गांधी परिवार के लिए आसान काम नजर नहीं आता।

इस विश्लेषण में एक बात और करनी जरूरी है कि आखिरकार कांग्रेस की इस करारी शिकस्त
के पीछे और बड़ा कारण क्या है,तो नजर डाली जाए ,उससे स्पष्ट हो जाएगा कि कांग्रेस में जातियों में जो नेता अपनी पैठ या विश्वास रखते थे, हर राज्य में धीरे धीरे कर उन नेताओं को साइडलाइन कर दिया गया। या जो दिवंगत हो गए, उनके स्थान पर नए नेतृत्व को मौका देने में कांग्रेस आलाकमान चूक कर गया।

इतना ही नहीं कांग्रेस यह तय नहीं कर पाई कि देश या प्रदेश में आखिरकार उसे चलना किन मुद्दों
को लेकर है।किस दिशा में चलना है,किस नेतृत्व में चलना है। ऐसे में कांग्रेस भ्रम में नजर आई। यह चर्चा भी जरूरी है कि कभी कांग्रेस पर मुस्लिम परस्त होने का आरोप लगता रहा, लेकिन आज पूरे भारत में देखिए कि जिन-जिन प्रदेशों में क्षेत्रीय दल बढ़े, वहां-वहां मुस्लिम समाज कांग्रेस का साथ छोड़ता गया। उस समय भी कांग्रेस को यह बात समझ नहीं आई कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है।

अपने मूल वोट बैंक मुस्लिम को संभालने के बजाय कांग्रेस ने अचानक सॉफ्ट हिंदुत्व का चोला ओढ़ने का सोचा। इसके बाद राहुल गांधी,प्रियंका गांधी वाड्रा,सोनिया गांधी हर चुनावी दौरे में मंदिर-मंदिर जाने लगे।

यह प्रयास तो था कि भाजपा के हिंदुत्ववादी चेहरे पर मिलने वाले वोट को अपनी ओर आकर्षित किया जाए, लेकिन वह तो आकर्षित नहीं हुआ,बल्कि खुद का मुस्लिम वोट बैंक जो कुछ प्रदेशों में बचा था,वह भी हाथ से निकल गया। सिर्फ मुस्लिम ही क्यों आज पूरे देश में देख लीजिए कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का जो वोट बैंक कभी कांग्रेस के पीछे एक मुस्त खडा होता था, वह भी हर प्रदेश में परिस्थिति वार बंटता चला गया।

इसका मूल कारण भी यह रहा कि जो नेता इन जाति वर्गों में पकड़ रखते थे, उनके बजाय उन लोगों को आगे लाया गया जो जमीन पर रहकर काम करने के बजाए सिर्फ दिल्ली परिक्रमा में माहिर थे। आप आज देख लीजिए कि कांग्रेस में विभाग- प्रकोष्ठ के जो राष्ट्रीय नेता हैं,क्या वह खुद चुनाव जीत सकते हैं।

ऐसे में उनकी स्थिति समझ आ सकती है, तो वह कांग्रेस को अपने वर्गों का वोट कहां से दिलवा आएंगे। यह सब आम कांग्रेसजन के समझ में आता है,लेकिन सीईओ कल्चर में जा चुकी कांग्रेस इस बात को समझने को कतई तैयार नहीं है।जब तक कांग्रेस इस बात को नहीं समझती है या नेतृत्व का एहसास नहीं कराती है, तब तक ऐसा कोई कारण नहीं है कि हिंदुस्तान का मतदाता कांग्रेस की ओर लौट कर आए।

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