आपको याद है पुराने ज़माने में सिनेमाघरों में फ़िल्में देखने का आनंद। टिकट के लिए लाइन में लगना और दौड़ कर हॉल में जाना ताकि वहां रोशनियां धीमी होकर बंद हो और सामने के परदे पर दृश्य शुरू हों उससे पहले पहुंच सकें ताकि कुछ भी, फिल्म शुरू होने से पहले के स्लाइड के विज्ञापन और न्यूज़ रील भी,छूट न जाए। सबसे अधिक उत्सुकता फिल्म के शुरू होने से पहले परदे पर दिखाए जाने वाले सेंसर के सर्टिफिकेट की रहती थी। इसमें भी सबसे अधिक उत्सुकता उसमें लिखी फिल्म के रीलों की संख्या को जानने की रहती थी कि वह फिल्म कितनी लंबी है। उस ज़माने में आम तौर पर फिल्में 14 से 16 रीलों की होती थी। यदि इससे अधिक रीलों की संख्या होती तो दर्शकों को बड़ा सुकून मिलता था। शायद मन में यह होता था कि फिल्म लंबी है तो अधिक देर तक उसका आनंद लेंगे। मगर 14 या इससे कम रीलों की संख्या देखते तो दिल बैठ जाता था।
एक संदर्भ ग्रंथ Censor Certificate Information of Hindi Talkies (1931-2010) अमरीका में रहने वाले प्रो. सुरजीत सिंह ने हरमंदिर सिंह ‘हमराज’ के साथ मिल कर प्रस्तुत किया है। इसमें 1931 से लगाकर 2010 के बीच के कालखंड में सेंसर हुई फिल्मों को वर्षवार सूचीबद्ध किया गया है। शब्दानुक्रम में सूचीबद्ध फिल्मों को सेंसर सर्टिफिकेट जारी होने के वर्ष, सर्टिफिकेट संख्या, सेंसर स्थान, फिल्म की लंबाई, रील संख्या, सेंसर की तारीख, फिल्म का विषय, निर्माता कंपनी का नाम और किन दर्शकों के लिए प्रदर्शन की अनुमति की जानकारी मिलती है।
इस ग्रंथ को पलटते हुए हमने एक तुरत खबरिया अनुसंधान किया तो पाया की सबसे लंबी फिल्म का ताज राजकपूर की क्लासिक ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) के सिर से अब तक कोई छीन नहीं सका है जो 25 रील की थी। दूसरे स्थान पर हम राज कपूर की ही यादगार फिल्म ‘संगम’ (1964) और आमिर खान की क्लासिक ‘लगान’ (2001) को पाते हैं जो 24 रीलों की थी। इसके एक पायदान नीचे निखिल अड़वानी की ‘सलाम ए इश्क़’ (2007) आती है जो 23 रीलों में प्रदर्शित हुई थी। इनके बाद नवकेतन की क्लासिक फिल्म ‘गाइड’ (1965) तथा बी आर चोपड़ा की ‘वक्त’ (1965) मिलती हैं जो 22 रीलों वाली थी।
हमने यह भी पाया की लंबी फिल्में बनाने में सुभाष घई की ‘मुक्ता आर्ट्स’ का कोई मुकाबला नहीं रहा जिसकी पांच फिल्में 20 या 21 रीलों की थी। ‘कर्मा’ (1986), ‘सौदागर’ (1991) और ‘परदेस’ (1997) फिल्में 21 रीलों वाली थी जबकि दो अन्य ‘खलनायक’ (1993) और ‘किसना’ (2005) फ़िल्में 20 रीलों वाली थी।
वैसे रामानंद सागर की ‘गीत’ (1970), शशि कपूर की प्रोडक्शन कंपनी फिल्मवाला की ‘अजूबा’ (1991) और राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) भी 21 रीलों वाली फिल्में थीं।
अब तो डिजिटल ज़माने में सेलुलॉयड फिल्म पर चलचित्र नहीं बनते इसलिए उनमें रीलों के डिब्बे नहीं होते। अतः उनके सेंसर सर्टिफिकेट में रीलों की संख्या का उल्लेख नहीं होता। अब फिल्म की समय अवधि दर्ज होती है।
सेंसर सर्टिफिकेट के नीचे कभी बायें कभी दायें हिस्से पर त्रिकोण का चिन्ह किन्हीं फिल्मों में होता है। यदि यह चिन्ह है तो उसका अर्थ होता है उस फिल्म पर सेंसर की कैंची चली है। अनेक दर्शकों को तब इसे देखने की भी उत्सुकता रहती थी और वे चलती फिल्म के बीच अपनी राय दे देते थे कि यहां सीन कट किया गया है।
यह तो सबको जानकारी होगी ही कि प्रत्येक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट दस वर्ष की अवधि के लिए मिलता है। हर दस वर्ष बाद यदि फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन करना है तो उसके लिए फिर से अगले दस वर्ष के लिए यह प्रमाणपत्र लेना पड़ता है।
साथ के चित्र में ‘मेरा नाम जोकर’ का सेंसर सर्टिफिकेट फ़िल्म रिलीज होने के दस साल बाद 1980 का रि इश्यू वाला है।
वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोझा