पिछली सदी का छठा दशक का वह जमाना था जब जिंदगी और सिनेमाघरों में फ़िल्में, दोनों खूबसूरत लगती थीं। दोनों सयाने हो रहे थे। सिने संगीत की मधुरता का झरना बह रहा था।
भले ही समीक्षक उन्हें फॉर्मूला फिल्में कहते थे जिनकी कहानियों में नायक-नायिका बगीचों में गाने गाते थे, उनके प्रेम में अमीर-गरीब और सामाजिक भेदभाव के साथ कोई विलेन बाधा डालता था परंतु अंत में सब बाधाएं हट जाती थीं और सुखांत “दी एंड” होता था।
लोग फ़िल्मों को बार-बार देखने सिनेमाघरों को जाते थे और वे महीनों चलती थीं। इस दौर की फिल्मों में अनोखा भोलापन था तो साथ में ‘ग्रेस’ भी था। फिल्मों के गाने सुनने के लिए लोग पोस्टकार्डों पर रेडियो स्टेशनों को फरमाइशें लिख कर भेजते थे और वे फिल्मी गानों के रेडियो श्रोताओं के क्लब/संगठन भी बनाते थे।
उसी दौर में उभर कर अपना ऊंचा मुक़ाम बनाने वाली अभिनेत्री आशा पारेख को पिछले दिनों राष्ट्रीय सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिलने का उत्सव आज सुरसंगत के मासिक समागम में मनाया गया।
इस अभिनेत्री की 2017 में आई आत्मकथा ‘The Hit Girl’ की प्रस्तावना में इस दौर के सफलतम अभिनेताओं में एक सलमान खान ने लिखा “आशा पारेख जैसी अभिनेत्रियां अब नहीं होतीं।” आज सुरसंगत में इस अभिनेत्री की सिने यात्रा पर जब फिर से निगाह डाली गई तो थोड़े समय के लिए सभी संगतकार अपने अपने उस अतीत में चले गए जिससे उनका गहरा अनुराग अब भी बना हुआ है।
राष्ट्रपति द्वारा आशा पारेख को पुरस्कार दिए जाने तथा उस अवसर पर फ़िल्म प्रभाग द्वारा उन पर निर्मित लघु चित्र के प्रदर्शन के वीडियो प्रस्तुतिकरण के साथ इस मौके बीबीसी द्वारा ली गई ।
भेंट वार्ता से उजागर हुआ कि यह अभिनेत्री ऐसी विदुषी है जिसे चलचित्र विधा का गहरा व्यवहारिक ज्ञान है और जिसने न केवल अनेक सफल टीवी सीरियल ही नहीं बनाए और निर्देशित किए हैं बल्कि सेंसर बोर्ड की प्रमुख के रूप में भी अपनी छाप छोड़ी। उनके सामाजिक सरोकार भी कम नहीं है।
सिने संगीत के पन्ने पलटते हुए संगतजारों ने नायिका के रूप में आशा पारेख की पहली फिल्म ‘दिल देके देखो’ (1959), उनको स्टार नायिका के रूप में स्थापित करने वाली ‘जब प्यार किसी से होता है’ (1961), उन्हें गंभीर कलाकार के रूप में मान्यता दिलाने वाली ‘दो बदन’ (1966) और ट्रेंड सेट करने वाली ‘तीसरी मंज़िल’ (1966) व ‘कारवां’ (1971) के गाने भी समागम में उभरकर आए।
आज की संगत का विषय मेज़बान आदरणीय केवल खन्ना ने अशोक कुमार की सिनेसंगीत यात्रा चुना था। बाद में आशा पारेख को दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिलने की खबर आने पर उसका उत्सव भी आज की संगत में शामिल कर लिया गया।
अशोक कुमार की याद का आगाज़ ऋषिकेश मुखर्जी की खूबसूरत फिल्म ‘आशिर्वाद’ (1968) के उस दृश्य से हुआ जिसमें इस अभिनेता और हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के बीच अद्भुत जुगलबंदी थी। ‘विक्टोरिया 203’ (1972) में प्राण के साथ और ‘चलती का नाम गाड़ी’ (1958) में किशोर कुमार और अनूप कुमार के साथ भी उनकी जुगलबंदी की याद आई।
योगी कुमार गिरि की भूमिका में अशोक कुमार और राजनर्तकी चित्रलेखा के क़िरदार में मीनाकुमारी के बीच केदार शर्मा की फिल्म ‘चित्रलेखा’ (1964) के दृश्य में संवादों की अलग ही जुगलबंदी थी।
एक ही सिनेमाघर में लंबे समय तक चलने वाली फिल्म ‘किस्मत’ (1943) में खुद अशोक कुमार द्वारा गाए गए गाने ‘धीरे धीरे आरे बादल’ के साथ इस अभिनेता पर फिल्माए गए ‘पूछो न कैसे मैने रैन बिताई’ (‘मेरी सूरत तेरी आंखें’/1963/ मन्नाडे/शैलेंद्र/एस डी बर्मन) और ‘बेकरार दिल तू गाए जा’ (‘दूर का राही’/1971/किशोर कुमार/इरशाद/किशोर कुमार) तो याद आने ही थे।