पितृ दोष ,ज्योतिषीय योग एंव निवारण

liyaquat Ali
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                                    बाबूलाल शास्त्री (साहू)

 

शास्त्रो के अनुसार देव ऋण, ऋर्षि ऋण एंव पितृ ऋण का जन्म जन्मान्तरो तक मानव पर प्रभाव रहता है इसलिये शास्त्रो में पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः, मातृ देवो भवः आदि सम्बोधन किये गये है, वैसे ऋण का अर्थ है कर्ज, जिसको उसकी संतान या परिजनो द्वारा चुकाना है । जब जातक पर उसके पूर्वजो के पापो का गुप्त प्रभाव पडता है तब पितृ दोष कहलाता है । अतः मानव को जीवन में तीन बातो को सदैव स्मरण रखनी चाहिये । कर्ज, फर्ज और मर्ज जो इन तीनो बातो का ध्यान रखकर कर्म करता है वह कभी असफल नही होता ।

पांडवो की गलती का परिणाम द्रोपदी को भुगतना पडा था । राजा दषरथ के हाथो निषाना चूक जाने पर श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई । श्रवण के श्राप से ही राजा दषरथ की मृत्यु पुत्र वियोग में हुई ।पौराणिक धार्मिक ग्रंथो में भी पितृ दोष का विस्तृत वर्णन मिलता है जिनके अनुसार हमारे पूर्वजो पितृरों की आत्मा अतृप्त या असतुंष्ट रहे तो संतान की कुंडली दूषित हो जाती हैजिसे वर्तमान में कष्टो तथा दुर्भाग्यो का सामना पितृ दोष के रूप में करना पडता है ।

इस परिधि में मानव के साथ देवता गण पषु पक्षी सभी जीव आते है जिनके द्वारा गयाजी में पिण्ड भराया जाकर पितृ शांति कराई जाती है उनका पितृो से मुक्ति पा लेना एक भ्रम है क्योंकि जो पितृ परिवार के रक्षक है जिनकी आसक्ति परिवार पर रहती है । अतः उनकी सेवा से ही शुभ फलो की प्राप्ति होती है । ज्योतिष शास्त्र का संबंध जातक के इस जन्म के साथ पूर्व जन्म के कर्म से भी है । कुंडली भूत, भविष्य, वर्तमान तीनो की परिचायक है । जन्म कुंडली में सूर्य, गुरू, चन्द्र, मंगल, शुक्र, शनि ग्रहो पर राहु का प्रभाव या दृष्टि संबंध हो तो यह पितृ दोष को इंगित करता है ।

जन्म कुंडली में बुध अकेला नवम भाव में धनु राषि में हो तो पितृ दोष का सूचक है । बुध ग्रह को पितृ दोष के लिये मुख्य रूप से एंव राहु, शुक्र को कारक माना गया है । ये किसी भी स्थान पर अकेले बैठे हो या अन्य ग्रहो के साथ बैठे हो, अगर गुरू से प्रथम, द्वितीय, पांचवे, नवें, बारहवें भाव पर बुध, शुक्र या राहु बैठे हो तो पितृ दोष माना गया है । जन्म कुंडली में यदि चन्द्रमा पर राहु, केतु, शनि का प्रभाव हो तो जातक मातृ ऋण से पीडित होता है । चन्द्रमा मन का कारक है अतः ऐसे जातक को निरंतर अषंाति रहती है ।

यदि सूर्य पर शनि, राहु, केतु का प्रभाव या दृष्टि हो तो जातक पितृ ऋण के कारण मान प्रतिष्ठा के अभाव में संतान से कष्ट, व्यवसाय में हानि होती है । यदि संतान अपंग, मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीडित है तो व्यक्ति का संपूर्ण जीवन उस पर केन्द्रित हो जाता है । यदि लग्न में या पंचम में सूर्य, मंगल, शनि हो अष्टम या द्वादष में गुरू, राहु हो तो पितृ दोष होता है ।

पंचम में नीच का सूर्य हो, मेष में नीच का शनि हो, या लग्न में पाप ग्रह हो, दषमेष, छठे, आठवे, बारहवे भाव में हो, पुत्र कारक गुरू पाप ग्रह की राषि में हो, या पंचम में पाप ग्रह हो, तृतीयेष की अष्टमेष से युति हो तो छोटे भाई बहिनो के कारण चतुर्देष अष्टमेष का संबंध हो तो माता के कारण, दषमेष, अष्टमेष का संबंध हो तो पिता के कारण, एकादषेष, अष्टमेष का संबंध हो तो बडे भाई के कारण, पितृ दोष की उत्पत्ति होती है । शनि, राहु चतुर्थ या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है । मंगल, राहु चतुर्थ भाव में हो तो मामा का दोष लगता है ।

राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति या दृष्टि हो तो दादा, परदादा का दोष, मंगल के साथ राहु हो तो भाई का दोष, राहु शुक्र की युति हो तो ब्राहमण ऋर्षि का अपमान करने का दोष, सूर्य, राहु पितृ दोष, राहु चन्द्र माता का दोष, राहु शनि सर्प संतान का दोष होता है ।

यदि गुरू पर दो पाप ग्रहो का प्रभाव हो तथा गुरू 4, 8, 12 वें भाव में हो या नीच राषि में हो तथा अंषो में भी निर्बल हो तो पितृ दोष पूर्ण रूप से घटित होता है । प्रस्तुत जन्म कुंडली के अनुसार पितृ दोष दादा परदादा से चला आ रहा है ।

अगर किसी जातक की जन्म कुंडली मे पितृ दोष, देव दोष, मातृ दोष आदि हो तो देव ़ऋण देव पूजन हवन आदि कर्म से चुकता है । ऋर्षि ऋण ब्राहमण, संत सेवा से निवृत होता है पितृ दोष, भू्रण हत्या, भ्रम दोष आदि का उपाय कर्म काण्ड द्वारा तर्पण श्राद्व एंव दान ही है जो तीर्थ स्थल पर जाकर विधिवत कराया जाता है पिता, पितामह, माता, पितामही, परपितामही परपितामह, परमातामह, मातामह एवं वृद्व परमातामह यह नो देवता है ,इनके लिये किये जाने वाला श्राद्व नवदेवताक या नवदेवत्य कहलाता है । श्राद्व का दूसरा नाम कनागत भी है ।

स्कंध पुराण के अनुसार महाकाल ने बताया है कि पितृों एंव देवताओं की योनि ऐसेी है कि दूर से कही हुई बाते वो सुन लेते है । दूर से की हुई पूजा स्तुति से भी सतुंष्ट हो जाते है जैसे मनुष्य का आहार अन्न है, पशुओं का घास है वैसे ही पितृो का आहार अन्न का सार तत्व है, पितृरों की शंक्तियां ज्ञानगम्य है जो श्राद्व में दी हुई वस्तुओं का सारतत्व ही ग्रहण करते है । देव योनि में हो तो दिये हुये अन्न को अमृत के रूप में, मनुष्य या पशु योनि में हो तो तृण या घास के रूप में, नाग योनि मंे हो तो वायु के रूप में, यक्ष योनि में हो तो पान के रूप में ग्रहण करते है, जो गाय को देने पर देवलोक में, ब्राहमण को देने से यक्षलोक में, कौओ को देने से यमलोक में कुत्तों को देने से मृत्युलोक में इनके माध्यम से ग्रहण करते है, मृत्यु के तीसरे दिन लगाये गये भोग का अन्नसार कौओ के माध्यम से मृत आत्मा को यमलोक में प्राप्त होता है ।

आष्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितृरों को स्वतन्त्र कर देते है ताकि वो अपनी संतान या परिजनों से श्राद्व के निमित्त भोजन ग्रहण कर लेवे । श्राद्व चिन्तामणी ग्रन्थ अनुसार किसी मृत आत्मा का तीन वर्षो तक श्राद्व कर्म नहीं किया जावे तो वह जीवात्मा प्रेत योनि में चली जाती है, जो तमोगुणी,रजोगुणी एवं सतोगुणी होती है । पृथ्वी पर निवास करने वाली आत्माऐं तमोगुणी, आकाष में रहने वाली आत्माऐं रजोगुणी, वायुमण्डल में रहने वाली आत्माऐं सतोगुणी होती है । इनकी मुक्ति के लिए शास्त्रों में त्रिपिण्डी श्राद्व करने का विधान दिया है श्रापित दोष के लिए नारायण बली ,नागबली, करानी चाहिए । बली से अभिप्राय आटे की मूर्ति हल्दी या केसर मिलाकर बनाये पूजा कर नदी में प्रवाहित करे ।

पितृ दोषों का निवारण युग तीर्थो प्रयाग,पुष्कर,कुरूक्षैत्र, हरिद्वार, बद्रीधाम जैसे पुण्य स्थानों पर जाकर किया जा सकता हैं । शास्त्रों अनुसार पितृ शांति के लिये दष्ंााष अर्थात आय का दसवा भाग खर्च करने का प्रावधान है, जो जातक समर्थ नहीं हो उनके द्वारा नदी के किनारे किसी प्राचीन षिवालय में किया जा सकता है । पिण्ड दान श्राद्व का अधिकार पुत्र को दिया गया है । पुत्र होने पर पिता लोको को जीत लेता है पौत्र होेने पर आनन्तय को प्राप्त होता है प्रपौत्र होने पर सूर्य लोक को प्राप्त कर लेता है । राजा भागीरथ द्वारा तपस्या से गंगा मां का अवतरण भूमि पर पितृो की मुक्ति के लिये ही किया गया था । पितृ शांति के लिये श्रीमद भागवत गीता का ग्याहरवा अध्याय पठन पाठन करने से मोक्ष प्राप्त होता है ।

शास्त्रों में गंगा स्नान मोक्ष है जिसमें स्नान करने वाले का मोक्ष होता है किन्तु गीता रूपी गंगा में गोते लगाने वाला स्वयं के साथ दूसरों को भी तारन में समर्थ होता हैं । सात शनिवार लगातार एक लोटे में जल कच्चा दूध एक चुटकी सिंदूर एक बताषा दुर्वा डालकर सूर्योदय के समय पीपल की जड में चढाये दीपक जलाये तथा सात परिक्रमा लगाये बिना मुडकर देखे बिना वापस आये । ऐसा करने से पितृ सपने में आकर उनकी इच्छा प्रकट करते है ।

निवास में उनका स्थान बनाये जंहा पर नियमित दीपक अगरबत्ती जलायें । प्रातः मुख्य द्वार पर प्रवेष के दाहिनी ओर दो अगरबत्ती लगाये क्योकि सूर्य आत्मा का कारक है व विष्णु का प्रतीक है इनमें सभी आत्माओं का निवास है । सांयकाल पानी का परिण्डा (जलाषय) के स्थान पर दो अगरबत्ती दीपक जलाये क्योंकि परिण्डा पितृो का स्थान होता है । माघ वैषाख ज्येष्ठ भादवा माह में अमावस्या को पितृो को नियमित वस्त्र बर्तन आदि दान करें । गजेन्द्र मोक्ष पितृ स्त्रोत पितृ गायत्री मंत्र पितृादि ब्राहमय शांति स्त्रोत आदि का पाठ करें ।

babu lal shartri,tonk

बाबूलाल शास्त्री (साहू)
मनु ज्योतिष एंव वास्तु शोध संस्थान टोंक,
बडवाली हवेली के सामने सुभाष बाजार टोंक राज.
मो. 9413129502, 9261384170

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